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________________ २६९ ] 1 -1 यद्यपि प्रतीकार करने में कुछ न कुछ शिष्टाचार को धक्का लगता ही है, पर देखना यह चाहिये कि जनहित न्यायरक्षा आदि के लिये अनिवार्य क्या है | अनिवार्य जितना हो उसे चिकन सूचक की काय सुच होगा | इस प्रकार दुर्जनता का निग्रह करते हुए मनुष्य कषाय से बचा रहेगा । जो बात कषाय कालि के विषय में कही गई है वही कषायकिड्ड के विषय में भी समझना चाहिये । मानलो एक आदमी दुर्जन है, अन्यायी, अभिषेकी या मूर्ख है, उसकी योग्यता और स्वभाव से परिचित हो कर हम जीवन भर व्यवहार करते हैं, व्यवहार करते समय उसके दुर्जन स्वभाव का हमें स्मरण रखना पड़ता है तो इसे कहेंगे । इस प्रकार संस्कार के रूप में जो आचार-स्मृति होगी उसके मूल में अगर भक्षण तक्षण होगा उसे कहेंगे अन्यथा चिकित्सा कहेंगे । प्रश्न- क्या यह उचित न होगा कि हम आचार स्मृति का त्याग ही कादें और बिलकुल श्रीराग बन जायें | हमारे ऊपर अन्याय हो तो हम अन्याय को चुपचाप महनीय | उत्तर- भगवती की मी एक अंग है, किसी किसी व्यक्ति सेवा के लिये इसी नीति को सत्य मृत का यह को जन होती का अंग की भगवती की अधिक शान्त भी नम्व केक और कल का जमी तो आन-साधना साधना या मनसाधना | परन्तु यह भगवती की एक ही अंग है। इसके सिवाय दूसरे आवश्यकता अधिक होती है | लोक साधना मे यह उचित रहा जाय । चिकित्सक ऐसा न हो कि भ्रम हो जाय । र, प्रकरण है 最 की दृष्टि से चिकित्सा को कषाय नहीं कहते । हां, चिकित्सा की ओट में कषाय का प्रवेश सरलता से हो सकता है इसलिये इस तरफ से काफी सतर्क रहने की ज़रूरत है । प्रश्न- आप कालिमा की अपेक्षा किट्ट को बड़ा पाप बताते हैं पर जितनी हानि कालिमा म है उतनी कि में नहीं है । क्रोध को रोक है इस मनोबल को पाप क्यों कहते हैं ! रखने में एक तरह के मनोबल का परिचय मिलता उत्तर- मनोबल तो पाप नहीं है किन्तु जिस मनोबल या बल का उपयोग भक्षण- तक्षण में हो वह पाप अवश्य है। मनोबल का मनचाहा उपवर्धन रक्षणमय उपयोग संयम संयम है, क्रोध को रोक यद्यपि मनोबल दोनों में योग संयम नहीं है में है। क्रोध को रोकने रखने में संयम नहीं है । है । क्रोध में किसी को रोककर पत्थर न क्रोध को रोककर पत्थर से यह भाग जायगा तब यह सब से बुरा है। को रोका जाता है आदि के कारण क्रोध पत्थर मारना बुरा है, क्रोध मारना अच्छा है, पर इसलिये न मारना कि पत्थर मारने बन्दुक न मार पाऊँगा बदला लेने के लिये जो अथवा अशक्ति, अनवसर प्रगट नहीं होता किन्तु भीतर ही भीतर जलता रहता है वह अपनी हानि करता है अपना जीवन नरक बनाता है और दूसरों को भी जलाता है और शंका से बेचैन करता रहता है। 1 पहिले कहा जा चुका है कि कांव का संवेदन दुःखानक होता है, क्रोध रोककर रखने से जब तक यह रक्खा रहेगा तब तक हमें दुःख ही देता रहेगा। साथ ही वह दूसरों को बेचैन और दु:खी बनाता रहेगा। घर में छुपे हुए सांप से जिस प्रकार लोग शक और बेचैन रहते
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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