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________________ भगवती की साधना है. पर आत्मप्रशंसा से हम अनादर असहयोग और घृणा ही पाते हैं इसलिये आत्मप्रशंसा बेकार है, इतनाही नहीं वह हनांग स्थान नीचा भी बनाती है ! भले ही मूढ़तावश हम इसे समझ न सकें । तारीफ तो दूसरे के मुंह से ही अच्छी मालूम होती है अपने मुँह से अपनी तारीफ़ में न तो मज़ा है न स्थिरता है और न व्यापकता है 1 २ - कायिक असा आत्मप्रदीमा बचन से ही नहीं होती. शरीर से भी होती है जिससे कि अहंकार का परिचय मिलता है और से जो हानियां ऊपर बतलाई गई हैं वे हानियां उठाना पड़ती हैं । तुम जब ऐसी सभा में बैठे हो जहां सेवा आदि के अनुसार बैटने का विचार किया जाता है वहां अपने से बड़े लोगों का स्थान झपट लेना कायिक है । इसी प्रकार, फोटो खिंचवाने की सामूहिक व्यवस्था में अपने उचित स्थान से ऊंजे दर्जे पर बैटना जिससे तुम्हारे अनुचित महस्व की घोषणा होती हो' राथ चलने में इस प्रकार बढ़ चढ़ कर चलना जिससे योग्य मनुष्यों का महत्त्व छिपता हो, योग्य व्यक्तियों से स्वयं पहिले शिष्टाचार न करना या शिष्टाचार की क्रिया या वचनों का योग्य उत्तर न दना, जरूरी और योग्य सेवा को तुच्छ समझकर उससे दूर रहना, आदि कायिक आत्मप्रशंसा है इससे हम दुनिया की दृष्टि में घृणास्पद और नीच बनते हैं । ३-- चुटिल, मांसामा और भी रूप हैं । कभी कभी हम आत्मप्रशंसा सीधे शब्दों में न करके कुछ ऐसे टेने शब्दों में या टेढ़े व्यवहार में करते हैं कि अगर हमें कोई अभिमानी सिद्ध करना चाहे तो हम शब्दों को हमें न आयें यह कुटिल प्रशमा है इसका परिणाम भी [ २६० बुरा होता है इसमें मन की । बल्कि हल का मिश्रण होने से अशुद्धि बढ़ भी जाती है। इस विषय में मेरे जीवन के कुछ संस्मरण और अन्य कथाएं उपयोगी होंगी | के क--जब मैं अन्तर्वतीका आन्दोलन करना था तब बहुत से विद्वान् मेरे विरोध में लेख लिखते थे। जिनने बहुत दिनतक मेरे विरोध में लिखा और सब से अधिक जोरदार लिखा ऐसे एक विद्वान् का मत अन्त में बदल गया और इस विषय में वे मेरे क्रियात्मक समर्थक हो गये। कुछ दिनबाद जब मैं दूसरा आन्दोलन करने लगा और उनने उस दूसरी बात का विरोध किया, तब मैंने लिखा आन्दोलन में आपने जैसी निःपक्षता का परिचय दिया वैसी आज भी देंगे तो फिर मेरे समर्थक बन जायेंगे । इन शब्दों में मेरा अभिमान छलछला रहा धालय का तो मंत्र था । इसका फल यह हुआ कि उनका भी अभिमान जग पहा और थोड़ा बहुत मेरा जो प्रभाव उन पर पड़ा था वह भी उनने अस्वीकार किया और आगे के किसी भी आन्दोलन में वे मेरे समर्थक नहीं हुए इस प्रकार मेरा इस कुटिल आत्मप्रशंसा ने मेरा उनका और समाज का काफी नुकसान किया । ख - एकबार बहुत से नेता लोग एक समारोह में मेहमान होकर गये थे । गांव के हजारों लोग उसमें हाजिर थे उनने सब मेहमानों के बैठने के लिये, खासकर जो उस समारोह में व्याख्यान देने आये थे उनके लिये कुर्सियों का इन्तजाम किया। मेहमानों में से एक सज्जन उस समारोह के अध्यक्ष चुने जाने वाले थे। उनने सोचा कि मेरे साथ सब मेहमान कुर्सी पर बैठें तो मेरी विशेषता क्या रही ! इसलिये उनने वहां के लोगों
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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