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________________ २५९ ] मत्यामृत ६-- अपनी पत्नी का अनुचित अपमान यद्यपि सबसे प्रबल और व्यापक कषाय होने पर उस अपमान का बदलादेना पत्नी-प्रेम है मोह है पर कई दृष्टियों से उसमें स्वाभाविकता किन्तु मातापिता कोई अच्छी बात सिखाना अधिक है, जीवन की आवश्यकता-पूर्ति के लिए चाहें, काम का अभ्यास कराना चाहे, उचित भी माह का उपयोग हो जाता है पर मान इतना सेबा देना चाहे तो पत्नी का पक्ष लेकर माता- स्वाभाविक और आवश्यक न होने पर भी तीव्र पिना से लाना पली-मोह है। होता है इसलिये यह माह की अपेक्षा कम प्रेम और मोड का अन्तर सायली मन्तव्य है। अभिमान का उपयोग सिर्फ इतना थामाला और भी लंबई जा मय है। सार हा है कि हम ही है कि हम दूसरों के सिर पर अपना महत्व बान बम सनही कह मूल में स्वार्थ लादें । महत्वानन्द की भूख बुझाने लिये मनुष्य और अविवेक रहता है जबकि प्रेम के मूल में आभमानी बनता है। मनुष्य महान् बने इसमें स्वपर-हित और विवक ।ता है। प्रेम बहुत फल कोई बुराई नहीं है, पर मनुष्य बडा बनना नहीं सकता है और उसकी सीमा पर ऐसी घर नहीं चाहता बड़ा कहलाना चाहता है और इसीलिए न जिस दूर को काटे, प्रेम अपनी अभिमान पाप रूप हो जाता है । भर .. कहलाने लगता है, मोह अभिमान से अनेक हानियाँ होती हैं । संकुचित होता है और उसकी सीमा पर ऐसी नमूने के रूप में कुछ का उल्लेख यहां किया धार होती है जिससे बह दुसरे को काटे । मह जाता है। इससे पता लगेगा कि बड़े कहलाने के की सीमा द्वेष से घिरी रहती है जब कि प्रेम लिये हम जितना अभिमान करते हैं, उतने ही की सीमा पर द्वेष नहीं होता बल्कि उसके चारो .तुच्छ होते जाते है और तुच्छ कहलाते भी आर 'स्वागतम' लिखा रहता है । प्रेम पुण्य है, जाते है । धर्म है। मोह कषाय है पाप है । इसलिये १- अ साधारण मनुष्यों में न मन के लिये माह का त्याग जमरत बजरूरत अपनी तारीफ करने की आदत दाना और प्रेम को अपनाना चाहिये। होती है और इसके लिये वे अतिशयोक्ति या निरभिमानता मिथ्यावाद से भी काम लेते हैं। ऐसे लोग। भगवती की म न' का दूसरा अंग को समझना चाहिये कि अगर कोई हमारे सामने नम: । का स्वरूप इसी अपनी तारीफ़ के पुल बांधता आवे तो जैसे हम अध्याय में पहिले कह दिया गया है और यह भी उसे क्षुद्र समझकर हंसने लगते हैं, प्रत्यक्ष में न बतला दिया गया है कि अभिमान और अम- करें तो परोक्ष में उसकी निंदा करने लगते हैं, गौरव में क्या अन्तर है ! अभिमान कपाय है. हमें उसकी फ सहन नहीं होती उसी प्रकार नगौरव कपाप नही। यहां तो भगवती की दुसरेको हमारी तारीफ़ सहन नहीं होती माधना के लिये अभिमानस होने वाली बुराई और वे भी निन्दः और घृणा करने लगते हैं। और निरभिमान से होने वाले लाभ क. विवेचन आनन्द तो हमें महान् बनंन या महान् कहलाने इमरी से अदर और सेवा पाने से मिल मकता
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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