SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४१] सत्यामृत रूप है दूसरी चिकित्सा रूप है । चिन्ता—किसी दुःखद घटना के दूर करने न्यायाधीश निःपक्ष न्याय करके अपराधी को जो के सुखद घटना के पाने के विषय में दुःखानुभव दंड देता है वह चिकित्सा है। म. रामने रावण करते हुए विचार करना चिन्ता है । चिन्ता में को जो दंड दिया वह भी चिकित्सारूप विरक्ति भी दुःखानुभव होता है पर शोक से कम होता है। विक्ति में द्वेष नहीं होता किन्तु नीतिरक्षण है और इसमें विचार की प्रबलता रहती है शोक का विधक होता है इसलिये विक्ति का कार्य है में दःखानुनव की प्रबलता है विचार की नहीं। कि जगत को और अपने को पाप या पापी से भय- अपनी असमर्थता का अनुभव दूर रक्खे । करते हुए हानि की सम्भावना से किसी से दूर __ अरुचि- अरुचि के पांच भेद रुचि के रहने का भाव भय है । घृणा और भय की बाह्यउल्टे है । जैसे इन्द्रिय मन के अनुकूल विषय में क्रिया कुछ मिलती जुलती होती है पर दोनों में काम होता है प्रतिकूल विषय में घृणा । इसी काफी अन्तर है । घृणा में हम किसी को तुच्छ प्रकार प्रतिकटता का अनुभव अरुचि है। यद्यपि समझते है जब कि भय में उसे शक्तिशाली समझते विरक्ति और द्वेष के मूल में भी प्रतिकूलता का हैं कभी कभी एक ही वस्तु के विषय में हमें घणा अनुभव होता है पान्तु ये भाव प्रतिकूलता के और भय दोनों होते हैं । पाप से भय भी होता अनुभव रूप नहीं है किन्तु उस अनुभव के बाद है और घृणा भी पर दोनों का रूप जुदा जुदा है । होने वाले विशेष भाव हैं इन भावों से मन दूसरों घृणा में पाप को तुच्छ समझा जाता है भय में उसे पर असर डालने के लिये क्रियाशील हो जाता है प्रबल समझा जाता है । परन्तु अरुचि में ऐसा नहीं होता। उसमें सिर्फ प्रश्न-- भक्तिभय में दूर रहने का भाव नहीं अनुभव ही होता है । जैसे मानलो हमें किसी का होता किन्तु प्रेम होता है निकटता की इच्छा होती दुष्ट कार्य देखकर उससे घृणा हुई । ऐसी घृणा है तब भय को दूर रहने का भाव क्यों कहा ? योगी या अर्हत् को भी हो सकती है इसमें कुछ उत्तर- जिस अंश में निकट रहने की क्रियाशीलता नहीं है । परन्तु इसके बाद योगी इच्छा होती है उस अंश में भय नहीं होता। जिस अर्हत और संयमी में विक्ति पैदा होगी असंयमी अंश में भय होता है उप अंश में दूर रहने की में देष पैदा होगा। ये भाव अरुचि से भिन्न हैं। इच्छा भी होती है । गुरु की पूरी भक्ति करते हुए कभी कभी घृणा आदि भाव ३.षाय के बाद भी शिष्य बिना काम के गुरु के पास नहीं बैठना भी बने रहते है तब कषाय के फलरूप ये भाव चाहता दूर रहता है कि कोई अशिष्टता न हो क.पायकित बन जाते हैं उस समय ये कषायरूप जाय गुरु को कोई कष्ट न हो जाय । यह भय ही बन जाते है। विनय का फल है लेकिन दूर रहने की वृत्ति इस पणा- क्रिमीच.ज को अपने सम्पर्क में न में अवश्य है । भय तीव्र नहीं है इसलिये दूर रहने रखने का भाव घृणा है। की वृत्ति भी तीव्र नहीं है साथ ही विनय भक्ति धोक- किसी दुःखपूर्ण घटना का ध्यान सेवाभाव आदि होने से यह भय कर्तव्य में बाधक र करके दुश्मन का अनुभव करना शोक है। नहीं किन्तु साधक ही होता है
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy