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________________ भगवती की माधना [ २४२ आर्य के विषय में रुचि के भेद कहते समय श्रेणी का रहता जब उसके सय किया है, विवेक कह दिया गया है। न हो तो जघन्य श्रेणी का बन जाता है, जैसे प्रश्न-- रुचि या अरुचि के भेद में लज्जा भक्ति मैत्री वान्मल्य, मोह बन जाते हैं, विरक्ति देव को क्यों नहीं गिनाया! बन जाती है उसी प्रकार लज्जा, जो कि प्रेम का उचा... लजा एक तरह की विनय भक्ति एक रूप ही है, विवेकशून्य होने पर मोह बन या आदर है इसलिये उसका समावेश प्रेम में होता जाती है । इसलिये व्याख्यान देते समय जो लजाते हैं वे विनयी हैं मांही नहीं नई है अथवा जब बुग कार्य हो जाने से लजित होना कहा जासकता। जिनके पास कुछ करने के है पड़ता है तब लजा विरक्ति में शामिल होती है। और जो कहना जानते है फिर भी वे श्रोताओं में लज्जा रुचि अरुचि के समान मध्यम श्रेणी की गुरुजनों या विद्वानों को देखकर ल जाते हैं तो यह नहीं किन्तु प्रेम आदि के समान उत्तम श्रेणी का लज्जा विनय ही है जिनके पास कुछ कहने को भाव है । लजा एक ताह का संयम है इसीलिये नहीं है और व्याख्याता कहलाने के लिये बोचने निर्लज्ज एक बड़ी भारी गाली है। चले जाते हैं वे अविनय ही करते हैं। हां, प्रश्न- बहुत से लोग लम्जा के मारे गुरुजनों ने व्याख्यान कला सिम्खाने के लिये व्याख्यान नहीं दे पाते क्या इस निर्बलता को। बोलने का अवसर दिया हो तो यह यत दमा विगत रह जाय ? है। मतलब यह किलजाना विनय तो है पर उत्तर- जिसको कुछ आता नहीं वह यदि उसका प्रयोग किक, असक्तानमार व्याख्यान नहीं दे पाता तो यह लज्जा नहीं करना चाहिये। अज्ञान है। आता है फिर भी व्याख्यान नहीं दे डन (क) एक अदनः नः न पाता तो कटाहीनता है, व्याख्यान का का काफी जानता इसलिये गाने में शानदार परिचय है फिर भी अमुक व्यक्तियों के सामने आदमी गाना जानता है पर उसे छोटा काम व्याख्यान नहीं दे पाता तो यह विनय है। समकर शरमाता है (ग) एक आदमी किसी व्याख्याता का व्याख्यान देते समय अपने महत्त्व काम को बुरा काम समझकर उसके करने में का कुछ अनुभव करना पड़ता है वह महत्त्व या शरमाता है। [] एक आदमी जीवन के तो ज्ञान का होता है या कलाका या दोना का, आवश्यक कामों में भी शरमाता है जैसे विवाह परन्तु जिन को इस विषय की त्रुटि का ध्यान शादी के काम में, या मत्रके मामने भोजन करने रहता है व लज्जित होते हैं वे अपने महत्व का में भी शरमाता है इस प्रकारज के जे. नान अनुभव नहीं कर पाते इसलिये यह विनय ही हे। रूप क्या उन्हें विनय कहना चाहिये। प्रश्न- तब तो जो व्याख्यान देते समय उत्तर-(क) विनय है। अन्य यो मत लजाते हे ये विनयी कहलाये और जो जरा भी के आसन पर नहीं बैठना चाहतः यह विनय नहीं ल जाने वे अविनयी कहलाये। है। (ख) अभिमान है। स्थिति को देखने का उचर--उत्तम श्रेणी का कोई भाव तभी उत्तम यह काम करना उसका अनुचित हो तो फिर
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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