SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती की साधना उचित यश या आदर छीनना पढ़े यह सब की एक बात मुझे याद अत: है कि हमारे घर में नाममाह है । यदि न्याय प्राप्त यश का उपभोग एक बैल था जिसके साथ मैं स्वतन्त्रता से खेलता हो यश की वेदी पर विश्वहित का बलिदान न हो था, कभी उसकी पीठ पर कभी गर्दनपर चढ़ जाता तो नाममोह नहीं है वह मानसिक काम है जो कि पूँछ से लटक जाता पर वह शान्त रहता मानों रुचिका भेद है। वह मुझे अपना बछड़ा ही समझता हो । जब मोह के जो ये भेद किये गये है वे निमित्त व्यापारिक असुविधा के कारण वह बेचा गया भेद से हैं मनोवृत्ति के भेद से नहीं। जैसे द्वेष के तब मैं उसके लिये कामा रोया । यद्यपि बैल के पूरे भेद कोधमान छल में मनोवृत्ति सम्बन्धी जातिभेट दाम मिले थे परन्तु बैल धन ही नहीं थ कुदाली में है वैसा अर्थमोह नाममोह आदि में नहीं है इसलिये था इसलिये उसका मोह मोह नहीं कुलमोह था। मोह को एक कषाय माना गया है जबकि द्वेष के प्रश्न- इसे मोह क्यों कहा जाय प्रेम क्यों भेद केध मान हल तीनों स्वतन्त्र कपाय माने गये हैं। न कहा जाय ।। जातिमाह- धर्म, देश प्रान्त नगर गली, उत्तर- मोह में विश्वहित अहित, न्याय व्यवसाय, गुण, आकृति, रूप, परिमाण, कार्य, अन्याय का विवेक नहीं रहता प्रेम में रहता है। नाम, आदि के भेद से जातिभेद की कल्पना इसलिये प्रेम है या मोह इसका विचार विवेक के अनेक तरह की होती है। बिना किसी रिश्ते के आधार पर कर लेना चाहिये । यों तो पशुओं से या स्वार्थ के सिर्फ उपर्युक्त बातों की समानता प्रेम भी हो सकता है और मोह भी । एक हिन्दू देखकर जो एक तरह का पक्षपात पैदा हो जाता गाय को नमाजोपकारी समझकर जब उस की है वह जानिमोह है। भक्ति करता है तब प्रेम है, भूतदया से प्रेरित हो कर जब उसकी सेवा करता है तब वात्सल्य है, ___ कुलमोह- जो कुटुम्बी हैं, रिश्तेदार हैं मित्र , अपना पालतु प्यारा प्राणी समझकर पक्षपात या सहयोगी हैं जिनसे किसी स्वार्थवश या करता है वह किसी का नुकसान कर आती है परिचयवश एक तरह की आत्मीयता पैदा हो गई तो भी वह पर्वाह नहीं करता तब कुलमोह है, है उससे जो आसक्ति पैदा होती है वह कुलमोह और उसे सम्पत्ति समझकर सिर्फ आर्थिक स्वार्थ है । कुलमोह मनुष्यों के साथ ही नहीं पशुपक्षियों की दृष्टि से उस पर भाव रखता है तब अमोह है। के साथ भी हो जाता है । पशुपक्षी जब सम्पत्ति विरक्ति- विश्वकल्याण के मार्ग में जो के रूप में सझे जाते है तब अर्थमोह होता है बाधक है उन्हें हटाना या उनसे हटना विराक्त है। जब साम्पत्तिक सम्बन्ध गौण हो जाता है तब एक आदमी जनसेवा के लिये गहत्याग करता है उन के विषय में कुलमोह होता है । किसी किसी इस प्रकार वह बाधकों से हटता है तो यह को अपने पालतू प्राणी कुत्ता शुक मैना आदि विरक्ति है जैसी कि म. महावीर या म. बुद्ध ने इतने प्यारे होते हैं कि उन की मौतसे उन्हें की थी, और एक आदमी नीतिभंग करनेवाले आर्थिक क्षति का ही कष्ट नहीं होता किन्तु अपराधी के दंड देता है इस प्रकार बाधक को सन्ततिवियोग का भी कष्ट होता है । बाल्यावस्था हटाता है यह भी विरक्ति है। पहिली उपेक्षा
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy