SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३९ ] की खुशी से गानेवाले का भी आनन्द बढ रहा है। इस प्रकार दोनों ही आनन्दमग्न हो रहे हैं इसे सहभोग कहा जाय या उपभोग ! उत्तर-- यह उपभोग ही है क्यों कि दोनों का भोग एक तरह का नहीं है । लोगों को संगीत का आनन्द आरहा है जब कि गायक को अपनी सफलता का आनन्द आरहा है - इससे मुझे यश मिलेगा, आदर मिलेगा, पैसा अधिक मिलेगा आदि । मतलब यह कि गायक कर्णसुख देने का आनन्द ले रहा है वर्णसुख लेने का नहीं | सम्भोग में दोनों का आनन्द एक ही जाति का होता है। मात्रा में भले ही सूक्ष्म अन्तर हो । सत्यामृत प्रश्न- गायक जो गाता है वह श्रोता के कान के समान गायक के कान में भी जाता है इसलिये दोनों का सुख एक ही जाति का कहलाया । तब इसे सहभोग क्यों न कहा जाय ? उत्तर- दोनों को कर्णसुख है पर जैसे गायक से मिला हुआ कर्णसुख श्रेता को है उस तरह श्रोता से मिला हुआ कर्णमुख गायक को नहीं है । सहभोग में यह आवश्यक है कि दोनों एक दूसरे के विषय हो । I अपने को विषय बनाकर अपना भोग करना स्वमोग है। एक आदमी अकेले में गाता है और खुद ही अपने स्वर का आनन्द लेता है दूसरा ले तो ठीक, न लेतो न मही, वह खुद ही अपने गाने में नाचने में मस्त है यह स्वभांग है। हास्य- आनन्द का उफान हास्य है । आनन्द का वेग जब कदम इस प्रकार उठता है कि भीतर समाने को उसे जगह नहीं मिलती त मनुष्य खिल उठता है इसी का नाम हास्य है । आशा- किसी इच्छित कार्य की मन में बार देखना | उत्साह - इच्छित कार्य करने की उमंग । आश्चर्य- - सम्भावना से अधिक कार्य या वस्तु के अनुभव में आने से पैदा होने वाला भाव । रुचि के ये पांचों भेद जब विश्वहित के साधक होते हैं तब प्रेमरूप हो जाते हैं, जब विश्वहित के बाधक होते हैं जब मोहरूप बन जाते हैं, विश्वहित के अविरुद्ध जब स्वार्थ के लिये होते हैं तब रुचि कहलाते हैं । आश्चर्य रुचि का भी भेद है और अरुचि भी, सम्भावना से अधिक इच्छित कार्य में रुचिरूप आश्चर्य होता है और सम्भावना से अधिक अनिष्ट कार्यमें अरुचि रूप आश्चर्य । आकस्मिक सुग्व से भी आश्चर्य होता है और आकस्मिक दुःख से भी । मोह - विवेकहित आसक्ति को मोह कहते हैं । प्रेम में विवेक रहता है इसलिये वह अन्याय को सहारा नहीं देता । प्रेमपात्र के सिवाय दूसरों से द्वेष करने को उत्तेजित नहीं करता जब कि मोह में यह विवेक नहीं रहता । मोह प्रेन की वह विकृत अवस्था है जिस का एक भाग बहुत गहरा हो गया है और दूसरा भाग द्वेष बनगया है । कषायका मूल यही है द्वेष भी इस मोह का ही परिणाम है । निमित्त के भेद से इस के चार भेद हैं। अर्थ तोह - जीवन के लिये उपयोगी वस्तु या इन्द्रियविषयसामग्री या उसे प्राप्त कराने वाली सामग्री का मोह अर्थमोह है । जैसे अन्न वस्त्र का मोह या अन्न वस्त्र को प्राप्त कराने वाले रुपये पैसे आदि का मोह अर्थमोह है । अर्थमोह को लोभ भी कहते हैं । लोभी कहने से अर्थमोही का ही ज्ञान होता है । नाममोह - हमारा नाम बढ़े, फैले, भले ही इस के लिये दूसरे की निन्दा करना पड़े दूसरे का
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy