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________________ ४०७ ] सत्यामृत । ४ - साधुता को अवलम्बन दिया जाता है साधु दुनिया को अधिक से अधिक सेवा देता है और कम से कम अथवा पेट भरने लायक ही लेता है । पर देता तो वह दुनिया भर को है पर ले किससे ? जिससे उसने भिक्षा ली उसको उसने सेवा दी हो ऐसा नियम भी नहीं चल सकता तब किसीको दान देकर ही उपकी साधुता को अवलम्बन देना पड़ेगा | साधुता को अवलम्बन देना साधु के ऊपर उपकार नहीं किन्तु समाज के ऊपर उपकार है अथवा समाज के एक सदस्य की हैसियत से समाज के कर्तव्य का पालन है । प्रश्न-दान से यश भी मिलता है फिर मश दान का प्रयोजन क्यों नहीं । I उत्तर - यश दान से मिलता तो है पर वह प्रयोजन नहीं है क्यों कि यश के लिये दान नहीं करना चाहिये । जो यश के लिये दान करता है वह विनिमय व्यापार-धंधा करता है, धन से यश ख़रीदता है । सच्चा यश इस तरह मोल नहीं मिलता । पैंसा देकर हम वेश्या से हाव भाव पा सकते हैं प्रेम नहीं, इसी प्रकार पैसे से कोरी वाहवाही पा सकते हैं यश नहीं । यश मिलता है जगकल्याण के लिये पैसा खर्च करने से । यश के लिये दान करने वाले को जगकल्याण की पर्वाह नहीं होती, कल्याण हो या अकल्याण उसे वाहवाही से मतलब है । जो उसके गीत गायेगा जहाँ देने से उसके गीत गाये जायेंगे वहीं वह दान देगा। इस प्रकार बुरे कार्यों को भी उत्तेजन मिळेगा और अच्छे कार्य में भी स्वार्थी चापलूस कार्यकर्ता घुम जाँय गे । इस प्रकार उसकी यशलालसा जनसेवा या जगत्कल्याण के कार्यक्षेत्र को भी बर्बाद कर देगी । इसलिये यश की मुख्यता से कभी दान न करना चाहिये । जनकल्याण के लिये करना चाहिये । जब जनकल्याण रूपी अनाज पकता है तब उसके साथ यश रूपी भूसा भी मिल ही जाता है । "अनाज की खेती की तरह दान में भी बहुत होश्यारी से काम करना पड़ता है । कहीं भी धन फेंक देना खेती नहीं हैं इसी प्रकार किसी को भी पैसा दे देना दान नहीं है | क्या चीज़ बोई जाय कच बोई जाय कैसी जमीन में बोई जाय इस प्रकार अनेक विचार खेती के काम में करना पड़ते हैं उसी प्रकार दान में करना चाहिये । दान में इन आठ बातों का विचार ज़रूरी है-क-पात्र, ख- उपयोग, गविधि, घ--अवसर, ङ--वस्तु, च--दाता, छ-- ध्येय, ज--प्रेरणा | इनकी विशेषता से दान में विशेषता पैदा होती है । क- पात्र - दान किसी भी प्रकार का दिया जाय पर यह देखना जरूरी है कि जैसा दान दिया जा रहा है पात्र वैसा ही है या नहीं । अपात्र या कुपात्र को देने से दान व्यर्थ जाता है या बुराइयाँ पैदा करता है, समाज में आलसी दुराचारी और दंभियों की संख्या बढ़ती है और सच्चे सेवकों साधुओं की संख्या घटती है । जब दभियों को सफलता मिलती है, साधु लोग तिरस्कृत अपमानित उपेक्षित होने लगते हैं तब साधुता की तरफ़ लोगों का ध्यान बहुत कम जा पाता है बहुत कम आदमी साधुता को अपनाते हैं या साधुता पर कायम रह पाते हैं ! इसलिये पात्र को ही दान देना चाहिये कुपात्र या अपात्र को नहीं ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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