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________________ कल्याणपथ [ ४०६ ८-परिस्थिति के कारण कोई हानिकर तो यह दान न कहलायगा, विनिमय कहलायगा। रिवाज ज़रूरी हो उठा हो तो परिस्थिति को बद- दान और त्याग-दान और त्याग कभी लने की चेष्टा करना । जैसे कहीं गुंडापन की कभी एक ही अर्थ में कहे जाते हैं पर दोनों में अधिकता के कारण स्त्रियों को परदा करना अन्ता है । त्याग में पाप से निवृत्ति है दान में जरूरी हा उठा हो तो वहाँ गुंडापन दूर करने का पाप के असर को कम करने का भाव है । त्यागी जोरदार अन्दोलन करना आर पर्दे को दृर दरर्जन न करेगा दानी दुर्जन करता रह सकेगा हटाना। पर दुरर्जन आदि से दूसरे लोग जो कंगाल हुए हैं ९-रीति रिवाजों पर या वेष भूषा पर धर्म उनके आँस पॉछेगा। दान में आत्मशुद्धि की मुख्यता की छाप न लमाना। नहीं है त्याग में है, इसलिये दान से त्याग ऊँचे १०-अपना रहन सहन खान पान स्वच्छता दर्जे का है । पर जो लोग त्यागी नहीं बन सकते आदि के नियम ऐसे बनाना जिससे दूसरों को साथ उन्हें दानी अवश्य बनना चाहिये । सब से अच्छी करने में कठिनाई न हो और सत्य अहिंसा का अवस्था यह है कि त्याग दानमूलक हो । उत्तराभंग न हो। धिकारी को सम्पत्ति सौंपकर त्याग करने की ३--अभ्यासी उतनी उपयोगिता नहीं जितनी विश्वहित में सम्पत्ति भगवती अहिंसा की साधना करने के लिय लगाकर त्याग करने की है । दान करने • अपने जीवन में संयमवृत्ति जगाने के लिये दस के चार प्रयोजन हैं। धर्मों का अभ्यास करना ज़रूरी है। पहिली १-दुरर्जन आदि के पाप का थोडा सा और दूसरी श्रेणी में भी साधारण अभ्यास किया प्रायश्चित्त हो जाता है। जाता है पर इस श्रेणी में इनका विशेष अभ्यास २ भोग से बची हुई सम्पत्ति जो न जाने करना चाहिये । यों तो विशेष अभ्यास का किस तरह बर्बाद हो जायगी उसका सदपयोग प्रारम्भ ही यहां कहा जासकता है अभ्यास बढ़ाने होता है। का काम तो आगे आगे योगी बनने तक बना ३-जनसेवा के जो कार्य विनिमय के आधार ही रहता है। पर नहीं किये जा सकते वे कार्य होने लगते हैं । अभ्यासधर्म जैसे हर एक रोगी मूल्य देकर या पूरा मूल्य देकर अभ्यास धर्म दस हैं । १-दान २-सेवा चिकित्सा नहीं करा सकता तो दान के द्वारा ३--विनय, ४--सरलता, ५- कोमलता, ६-क्षमा, उसको चिकित्सा सुलम हो जाती है, इसी प्रकार ७--श्रम, ८-दम, ९ -शम, १०--न्याय । शिक्षण, उपदेश के साधन समाचार पत्र आदि देना १ दान-जगत्कल्याण की दृष्टि से अपनी व्याख्यानादि के लिए आयोजन करना, पीड़ितों सम्पत्ति किसी को देना दान है। को अन्न वस्त्र आदि देना, यात्रियों को टहरने आदि सम्पत्ति अगर जगत्कल्याण की दृष्टि से न के स्थान देना, आदि बहुत से काम दान की दी जाय सिर्फ स्वार्थ का ही विचार किया जाय सहायता से किये जा सकते हैं ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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