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________________ २२५] सत्यामृत नई, कर लेता उसको छुपाय रहता है या छुपाने प्रश्न--इसमें जगहित है और स्वार्थवासना है ही. का प्रयत्न करता रहता है, पुण्य का उपयोग पाप नहीं, तब इसे शुद्ध पुण्य क्यों न कहना चाहिये ? छिपाने के लिये करता है तबतक उसका पुण्य उत्तर-- यद्यपि पुण्यार्थपापवाले को हम पैदा नहीं होता । एक आदमी इसलिये दान देता ___ पापी नहीं कहसकते बल्कि पुण्यात्मा ही कहेंगे है कि लोग उसकी कैती या बेईमानी की तरफ फिर भी वह पुण्यार्थपाप भी समय आने पर ध्यान न दें तो उसका दान अजातपुण्य है। जनता का अहित करता है, वह अतथ्य भाषण ७. पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति- विश्वकल्याण अपना बुरा फल दिखलाता ही है । जब कोई कलिये जहाँ थोड़ा बहुत पाप करना अनिवाय परीक्षक उस की परीक्षा करता है और मिथ्या हो बड़ों पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति होती है । जैसे पाता है तब उसके सत्यांश पर भी अविश्वास लोग को सदाचार का पाठ पढ़ाने के लिये स्वंग कर बैठता है । इस प्रकार इस का अहित होता है। के करियत चित्र का प्रलोभन देना। अगर इसलिये गद्ध पण्य में शामिल हो सकने योग्य लोग ऐसे अन्धश्रद्धालु हों कि वे युक्ति अनुभव होने पर भी उसे अलग भेद में गिनाया जिससे की सत्य बातें कहने पर भी विश्वास न करें यह पता लगे कि निःस्वार्थता होने पर भी पुण्य किसी अद्भुत अलौकिक देव देवी ईश्वर के शब्द के लिये जितना पाप कम किया जाय उतना अच्छा। पर विश्वास करें तो उन्हें समझाने के लिये शुद्ध पुण्य में अंकुश लगाने की ज़रूरत नहीं है कहा कि यह तो ईश्वर का सन्देश है यह तुम्हें किन्त पुण्यार्थपाप पर यथासम्भव अंकुश लगाने मानना ही चाहिये तो इतना झूठ पाप, महान की जरूरत है, यही बात बताने के लिये इस भेद पुण्य के लिये होने के कारण पुण्यार्थपाप प्रवृत्ति को शुद्ध पुण्य से अलग गिनाया है। है । स्मरण रहे कि यहाँ मुख्यता से लोककल्याण की ही भावना होना चाहिये पैगम्बर प्रश्न-यह पुण्यार्थपाप तो बड़े बड़े ज्ञानियों, तीर्थंकरों पैगम्बरों आदि में ही पाया जा सकता कह कर गौरव प्राप्त करने की नहीं । ऐसा है जन साधारण में तो पुण्यार्थपापी नहीं ही करें तो यह पाप प्रवृत्ति हो जायगी। होते होंगे। प्रश्न- इसे अशुद्ध पुष्प क्यों न कहना चाहिये ! क्योंकि इसका पुण्य पाप से दूषित उत्तर- सब में होते हैं। एक वैद्य रोगी को दिलासा देने के लिये झूठ बोलता है इसमें उसका उतर- अशुद्ध पुण्य में कुछ स्वत्वमोह कोई स्वार्थ आदि न होने से उसे अशुद्ध पुण्य या रखता है जब कि पुण्यार्थ पाप में मोह नहीं रहता। पाप नहीं कह सकते, वैद्यों के विषय में इस बात अशुद्ध पुण्य में पुण्य की मलिनता का कारण को लेकर रोगी के मन में अविश्वास रहता है इसस्वार्थ या स्मार्थ को संकुचित सीमा है जबकि लिये वह शुद्ध पुण्य भी नहीं है तब इसे पुण्यार्थपावापाप में स्वार्थ बासना नहीं है उस की पाप ही कहना चाहिये। धि अमहित पर ही है इसलिये दोनों में प्रश्न- शुद्ध पुण्य की तरह पुण्यार्थपाप को जीवन के ध्येय में शामिल करना चाहिये या नहीं !
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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