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________________ के लिये करने की अपेक्षा यही अच्छा कि उस पुण्य और पाप दोनों से दूर रहा जाय । उत्तर- युद्ध पुण्य की तरह पुण्पार्थ पाप भी जीवन का ध्येय है क्योंकि वह भी एक तरह का शुद्धपुण्य है। कोई ऐसी औषध हो जो किसी खास बीमारी को दूर तो करदे परन्तु बीमारी को दूर करके अपना कुछ बुरा असर -- जोकि उस बीमारी से बहुत कम हो - रोगी पर छोड़ जाय, तो उस औषध का उपयोग वैद्य उस समय अवश्य करता है जब किसी दूसरे तरीके से रोगी के बचने की आशा नहीं होती, यह वात वैद्य के कर्तव्य में शामिल है, इसी प्रकार तीर्थंकर पैगम्बर भी जब देखते हैं कि जन समाज को पाप की मौतसे बचाने के लिये अमुक तरह का अतध्य भाषण अनिवार्य हो उठा हैं तब वे उपर्युक्त वैद्य की तरह उस पुण्यार्थनाप का प्रयोग करते हैं। इसलिये यह भी जीवन का ध्येय है। हां, शुद्ध पुण्य करते हुए भी जो पुण्यार्थ पाप से बच सके वह उतना ही अच्छा । पर पुण्य भी न किया और पुण्वार्थपाप भी न किया तो इससे श्रेष्ठता नहीं आती। कुछ खराब दवा टेकर रोगी को मौत के में से बचा लेनेवाला वैद्य उस वैद्य से श्रेष्ठ है जो खराब दवा तो नहीं देता किन्तु रोगी को मर जाने देता है। हां, इन दोनों से श्रेष्ठ वह है जो खराब दवा भी नहीं देता और रोगी को बचा लेता है, पुण्यार्थ पाप नहीं करता पर पुण्य कर जाता है। प्रश्न- पुराने जमाने के महात्मा पापा का जितना प्रयोग करते थे आजकल उसका उतना प्रयोग नहीं किया जाता इससे मम होता है कि आजकल के महात्मा पुराने जमाने के महात्माओं से श्रेष्ट हैं । उत्तर-श्रेष्ठ हैं कि नहीं यह नहीं कहा जा सकत पर यह कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ हो सकते हैं, परन्तु उनकी पताका कारण यह नहीं होगा कि वे का प्रयोग नहीं करते । का प्रयोग तो इसलिये भी रोका जा सकता है कि यह दवा आज कारगर न रही हो, आज का रोगी पुराने रोगी की तरह न हो, ऐसी हालत में उसके प्रयोग करने में लघुता तो अवश्य है परन्तु उसके प्रयोग न करने में श्रेष्ठता नहीं है। पुराने जमाने के लोग भूत पिशाच स्वर्ग नरक की कथाएँ कह कर लोगों को धर्म या कर्तव्य का ज्ञान करा दिया करते थे, आज ऐसी कथाओं पर लोग विश्वास नहीं करते इसलिये अब ऐसी कथाएं निरर्थक हैं, जमाना ही ऐसा बदल गया या आगे बढ़ गया है कि ऐसी कथाओं पर विश्वास कराना भी लोगों की वैज्ञानिकता कम करना है इसलिये भी ऐसी कथाएँ निरर्थक हैं इसलिये आज का महात्मा या उपदेशक इन पुण्यार्थपापों का उपयोग नहीं करता, क्योंकि उसकी पुण्यात ही नष्ट हो गई हैं तब इसे पुराने महात्माओं से श्रेष्ट कैसे कह सकते हैं ! श्रेष्ठता तो तब होती जब ऐसे अलध्य वक्तव्यों की बच्ची रहने पर भी वह इनका प्रयोग न करता फिर भी उतना पुण्य कर जाता । खैर, पुण्यपाप यथासम्भव कम करना चाहिये पर उसके डरसे पुण्य कम न करना चाहिये। ८ पाप प्रवृत्ति- - इन तीनों का स्वरूप ९ अशुद्ध पुण्य प्रवृत्ति - ऊपर कहा ही जा चुका १० शुद्धपुण्य प्रवृत्ति है । बहुत सी प्रवृत्तियाँ जो हमें अशुद्धपुण्य या शुद्ध पुण्य मम होनी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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