SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आकारकांड-लौथा अध्याय [भगवती के उपांग] चार उपांग सी उपयोगिता न रहे । बोलचाल में कहीं कहीं तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में उपांगकमंद भोग शब्द का अर्थ श्री पुरुष का लैङ्गिक विषयबतादिये गये है और उनी अध्याय के अंत में मेवन किया जाता है। साहित्य में और बोलचाल अग उपांगों की तरतमता बता दी गई। उप. म भोग शब्द काम के अर्थ में भी आताहै। उस संयम चार हैं १-सद्भोग, २-मदर्जन. ३-निर- आदमी ने जवानीभर खूब भोग भोगे अर्थात् हर तिग्रह, ४-निरतिभोग । इस तरह उपसंयम के तरह का वैषयिक सुख लूटा । पर यहाँ भोग विरोधी उपपाप भी चार है-१ दग २ दर्जन शब्द का अर्थ इससे भी कुछ व्यापक है। काम ३ अतिग्रह ४ अतिभोग । यद्यपि ये चारों उप से जो प्रसनद मिलता है वह तो भोगहेही पाप पाप में शामिल हैं फिर भी पाप और उप- पर माद भी भोग है। इस प्रकार स्वाद पाप में तरतमता है और वह तरतमता सामा- का आनन्द भी भोग है पेट भरने का आनन्द भी जिक दृष्टि से है । पाप नैतिक नियम और भोग है । इस प्रकार काफी व्यापक अर्थ में भोग सामाजिक मर्यादा के प्राण और शरीर दोनों को शब्द का उपयोग किया जा रहा है। इसके नष्ट करदेता है जब कि उपपाप बाहरसे मर्यादा अनुमार दिन के लिये उपयोगी किसी भी वस्तु की कुछ रक्षा करता है प्राण नष्ट करके भी बह का उपयोग कर लेना भोग है। शरीर को बचाये रखता है । उपपाप से हानि भोग कोई गप नहीं है। जहाँ तक वे अपने कम होती है ऐसा नियम तो नहीं है पर आघात को सुख देते हैं और दूसरों को दुःख नहीं देते सीधा न होने से हानि कम मालूम होती है। वहाँ तक इनका नर उपयोग करना सामाजिक नियमों का सीधा उल्लंघन न होने से चाहिये । भोग का त्याग वहीं पुण्य है जहाँ वह उपपापी को पापी नहीं कहते । विश्वसुखवर्धन के लिये उपयोगी हो जाय । सद्भोग निरर्थक ही भोगों का त्याग करना कोई मर या भोग शब्द के कई अर्थ हैं । पहिले काम कर्तव्य नहीं है। के चार भेदों में भोग नाम का पहिन्छ। भेद आया प्रश्न- पुराने जमाने में बड़े बड़े महात्माओने, है जिसका अर्थ था किसी चीज़ का ऐसा उपयोग जैसे म. महावीर म. युद्ध दिने गृहल्याग किया करना जिससे दूसरे बार अपने लिये उसकी था, उपयःम अदि किये थे, अधिक से अधिक
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy