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________________ ३५१ ] सन्यामत - भोगों का त्याग किया था क्या वह सब पुण्य मनुष्य सुखी रह सके । नहीं था। __ एक बात और है। किसी को कला में उत्तर- वह पुण्य था क्योंकि उनने उतना आनन्द मिलता है, किसी को एकान्तमय -सादगी ही त्याग किया था जितना त्याग जरूरी था। में, किसी को किसी और चीज में, यह सब उनने विश्वकल्याण के लिये जो दोकमान अपनी अपनी रुचि की बात है, अचिकर होने का कार्य किया था उसके लिये उस समय से अगर हम किसी चीज का त्याग कर देते हैं तो गृहत्याग जरूरी था, बहुत पसलिंगगुता की इसे संयम नहीं कहते । संयम तो उसे कहते हैं कि आवश्यकता थी उनका अभ्यास भी करना था, जो रुचिकर भी हो परसराम या विश्वशिष्यों में ऐयाशी न आजाय इसके लिये खुद सुखवर्धन की दृष्टि से उसका त्याग किया जाय । आदर्श बनकर बताना था इसलिये उनने अनेक इमलिये रुचिकर होने पर भी दुर्भोग का त्याग तरह के कष्ट उठाये । जरूरत न होने पर तो करना चाहिये । सोग अगर अरुचिकर हो तो दोनों ने ही बहुत सी तपस्याओं का त्याग कर दिया उसका त्याग हो ही जायगा पर वह संयम न था। म. बुद्ध ने तो मध्यममार्ग का प्रचार करके कहलायगा । रुचिकर सद्भोग के त्याग करने की अनुचित देहदंड का त्याग कर ही दिया था जरूरत नहीं है। और म. महावीर ने भी केवलहान पाने के बाद कभी कभी रुचिकर सद्भोग के त्याग की बहुतसी बाह्य तपस्याओं का त्याग कर दिया था। भी जरूरत हो जाती है। महात्मा लोग जनहित ब्रह्मचर्य आदि तो उन्हें जरूरी ही था इसलिये के लिये गृहत्याग करते हैं, बड़ी बड़ी आमदनी रवा था। बाड़ते हैं, न छोड़ते हैं, जेलों में जाते हैं, हाँ, जो लोग उपयोनिता को देखकर त्याग यह सब साधारण संयम नहीं है किन्तु विशेष नहीं करते त्यागी कहलाने के लिये त्याग करते संयम है अर्थात तप है । तर भी सया का एक है, किसी अबसर की तैयारी करना भी जिनका अंश कहा जा सकता है पर उसमें एक बड़ा लक्ष्य नहीं है, अनावश्यक गंदगी रखते हैं, परिश्रम अन्तर यह है कि उसंम संयम के एक ही अंश से जी चुराते हैं और अनावश्यक कष्ट सहते है पर बहुत अधिक जोर डाला जाता है। बाकी वह सब व्यर्थ है । सद्भोग के त्याग करने की अंशोसे तप में बहुत कम सम्बन्ध रहता है । उन जरूरत नहीं है या अमुक अंश में किसी साधना अंशों में बह असंयनी भी हो सकता है। स्वतंत्रता के लिये त्याग करने की जरूरत है। त्याग करना के लिये जेल में जानेवाला बहादुर अगर निस्वार्थ चाहिये दुर्भोग का। हो तो हम उसे तपस्वी कहेंगे। पर यह हो कला का व्यसन न हो किन्तु कलाप्रियता सकता है कि वह अपने आन्दोलन के विषय में हो, परिमित शृङ्गार हो, स्वच्छता हो, कम खर्च गई नदार होकर भी ईवन में अन्य अवसर में स्वास्थ्यवर्धक स्वादिष्ट भोजन हो, इस प्रकार अनिवारी विवाद चरमर आदि हो। के भोग का त्याग न करना चाहिये । हाँ, सहि- इसलिये हम उसे नमस्त्री कहकर भी संयनी नहीं ष्णुता जमी है जिसमे इनके अभाव में भी कह सकते । साधारण तप और संयम एक दूसरे
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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