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________________ ३४९] सत्यामृत प्रारम्भ के छः वर्ग में रहने से साहित्य सत्य तथ्य जीवनमें जब संयम का प्रवेश होता है तब वह कलापूर्ण और स्वभाषिक बनजाता है। किसी एक ही रूप में दिखाई नहीं देता, वह इस प्रकार नाना तरह के अतथ्य और नाना सब तरफ़ से दिखाई देता है । यह हो. सकता तरह के तथ्य का विवेचन करने से पता लगजाता है कि कोई शक्ति के अनुसार कम ज्यादा संयम का है कि कहां किस रूप में कितना सत्य है । सत्य पालन करे पर यह नहीं हो सकता कि अमुक अन आखिर भगवती अहिंसा का एक अंग है अंग का पालन करे अमुक का नहीं। किसी इसलिये विश्वहित ही उसकी कसौटी है। किसी बीमारी के प्रगट होने का द्वार एकाध ही संसारहित है प्राण तेरा यम नियम सब अंग हैं। होता है पर बीमारी सर्वांगपूर्ण होती है, उसका यहाँ भगवती अहिंसा के तीन ही अंग फल मौत आदि भी सर्वांगपूर्ण होता है । इसी बतलाये गये हैं १-अहिंसा अर्थात् प्राणघातत्याग प्रकार असंयम भी सागपूर्ण है। अब यह बात २-अचौर्य अर्थात् अर्थघात त्याग ३-सत्य अर्थात दूसरी है कि किसी का असंयम प्राणघातरूप विश्वासघात त्याग । इसके सिवाय भी कर्तव्य में प्रगट होता है किसी का अर्थघात या विश्वाकर्म है जो उपांग हैं इसलिये इन अंगों में ही सघात के रूप में । प्रगट होने के द्वार के भेद समाजाते हैं। ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि संयम के से असंयम में तरतमता नहीं होती । जो लोग अन्य अंगों का भी विवेचन किया जाता है पर अकेला सत्य आदि का व्रत लेते हैं वे संयमी विश्वकल्याण की दृष्टि से विचार किया जाय तो नहीं हैं संयम के एकाध बाहरी रूप के अभ्यासी वे उपसंयम ही मालूम होते हैं । ब्रम्हचर्य वास्तव हैं । हाँ, संयम में विश्वहित की दृष्टि से तरतमता में सद्भोग है और अपरिग्रह वास्तव में निरतिग्रह होती है उस दृष्टि से संयमी जीवन में तरतमता है। ये मूल संयम नहीं हैं संयम के साधक या बताई जासकती है और अंगों और उपांगों में अंग होने से उपसंयम है। भी तरतमता है। फिर भी देश काल के अनुसार संयम और साधारणतः यही उचित है कि मनुष्य पाप का इच्छानुसार विभाग करके विवेचन किया उपांगों की अपेक्षा अंगों को पाने की पहिले जा सकता है । भगवती के अंग दो या चार या चेष्टा करे । पर इसका यह मतलब नहीं है कि पांच भी किये जा सकते हैं यह सिर्फ समझाने मनुष्य णप से नहीं बच सकता तो अनुपापों की की शैली है। सीमा न रक्खे छोटा से छोटा अनुमगार भी अगर मैंने जो भगवती के तीन ही अंग किये हैं हम रोक सके तो भी अच्छा है विश्वहित में कुछ और बाकी को उपांग बनाया है इसका एक न कुछ सहायता मिलेगी ही, भले ही इतने से कारण यह भी है कि अंग और उपांग का जैसा हम संयमी न कहला सकें। जो मनुष्य दंभ के कम ज्यादा महत्त्व है वैसा ही मेरे बताये हुए बिना, लालसा के बिना, थोड़ा-मा भी विश्वहित भगवती के अंगों और उपांगों का है। करता है वह भी निरर्थक नहीं जाता।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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