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________________ भगवती के अंग [ ३४२ हां, एक बातका और भी खयाल रखना क.. . ख- हिनाहित, गवान चाहिये कि जब हम समान की शुद्ध दृष्टि का परापन । से किसी व्याक्ति का विरोध भी करें तो यह क- किसी बात को करने की जिम्मेदारी देख लें कि विरोधी की भल नासमझी के कारण हमार ऊपर कितनी है--उसका म्यया-ट रक्खे।. हुई है या न्याय देताना आदि असंयम के जिम्मेदारी या - भी दो तरह कारण । अगर नासमझी से हुई हो तब हमें ___ का होता है एक तो नियोजित दूसरा सहज । , उसके व्यक्तित्य को पूरी तरह मक्षित रखना नियोजित अनः तो यह है जिसमें हम चाहिये और इस बात की पूरी कोशिश करनामी समाचार का कहने के लिये नियुक्त किये चाहिये कि विरोध के कारण उसक चित न या हो जाते हैं। गुप्तचर, ..... सम्मान या उचित स्वार्थ को यक नर पर ममालक. निरीक्षक (इन्स्पेक्टर) आदि इसी अगर यह माइम हो कि विरोधी व्यक्ति स्वयक तरह के उत्तरदायी है। सहज उन्म : कारण समाज को कुराह पर ले जा रहा है तो यह है कि जिससे हम प्रेम, अनुराग या मोह के उसके व्यक्तित्व आदि के विषय में उदासीन । या में होकर बिना किसी प्रेरणा के घर का रहकर या व्यक्तित्व आदि की पर्वाह किये बिना समाचार उधर कह देने है। उसके मत का ईमानदारी और नि:पक्षता में विरोध करना चाहिये । यह सोचकन महज उस में जो प्रेम, अनुराग या मंद रहता है वह तीन तरह का होता हैबहलाया। १--उन्मोन, २--मूटप्रेम और :- । ___३ प्रमादज तथ्य-- किसी बात को ज्यों जिसका समाचार कहा जाता है यह मूल है, का त्यों तो कहना, पर कहने की उपयोनि जिसको समाचार कहा जाता है वह पात्र है। का विचार न रखना प्रमादजतथ्य है | कहा जाता है कि किसी किसी के पेट में बात नहीं उभयप्रेम में हम ऐसा ही सम.च.र इधर से उधर पचती, वह बिना स्वार्थ के या द्वेष के इधर की कहते हैं जिससे हम दोनों की भलाई समझते बात उधर या उधर की बात इधर कह देता है। है, इस बात का खयाल रखते है कि दोनों में से उसमें द्वेष नहीं होता कि जिससे उसे चुगल- किसी को बुरा न लगे किसी का भी अप्रिय खोर या निन्दक कहा जा सके, उसमें सिर्फ काम न हो, दोनों को प्रसन्नता हो । एक तरह का अविवेक या लापर्वाही होती है। मूलप्रेम से हम ऐसा ही समाचार कहते हैं पर यह लापर्वाही होती है बहुत भयंकर, कभी जिससे मूल का हित समझते हैं, समाचार कहने कभी इससे बड़े बड़े अनर्थ हो जाते हैं। से मूल को प्रसन्नता होगी ऐसा खयाल करते हैं। इसलिये बात को पचाने की अधिक से अधिक जैसे उसने कोई तारीफ काम किया हो उसमें शक्ति हमारे भीतर होना चाहिये । अगर कभी कोई गुण हो तो उसका प्रचार करना आदि । कहीं ऐसी बात का जिकर करना भी हो तो इसमें पात्र की अपेक्षा मल से प्रेम अधिक इन तीन बातों का विचार कर लेना चाहिये। होता है।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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