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________________ भगवती अहिंमा [ २१८ अनुसार शक्तिभर प्रकार करे, निश्छल रहे । भावना अर्थात् कवि और ना होने पर का धर्म या मदवार के साथ जो इतना सम्बन्ध हर एक प्रवृत्ति सदाचार का बन सकती है। है इस के चार कारण हैं उदारपद १- हमारी जैसी भावना होती है वैसा ही प्रश्न-15 आदमी अपने कुटुम्बियों के हमसे प्रयत्न होता है जैसा प्रयत्न होता हे पालन पोषण के लिये झूठ बोलता है दंभ करता वैसा कार्य होता है यह साधारण है चोरी करता है और अनेक पाप करता है पर नियम है। इसके अपवाद बहुत कम होते खद बहत मादगी से रहता है यहां तक कि मनि हैं इसलिये सदाचार में भावना की मुख्यता है। या सन्यासी तक बन जाता है इसलिये उसे २- मनष्य अच्छे काम के लिये अछी निःस्वार्थ तो कहना ही पड़ेगा क्योंकि वह अपने भावना की ही जिम्मेदारी ले सकता है न कि लिये कुछ नहीं करता और कटक यकी भी अच्छे फल की, डाक्टर ईमानदारी से काम करने उसे मानना पडेगा क्योंकि उससे कुटुम्बियों के की ही जिम्मेदारी ले सकता है। वह रोगी को दुःख दूर होते हैं इस प्रकार अपको दश से यह बचा ही लेगा यह नहीं कहा जा सकता । अच्छी निर्दोष प्रवृत्ति कहलाई परन्तु इस निर्दोष प्रवृत्ति भावना पूर्वक प्रयत्न करने पर भी अगर कोई मर में दुनिया भर के पाप समा सकते हैं, दंन चेरी जाय और इस कारण डाक्टर को खूनी कहा जाय आदि करते हुए भी अगर निर्दोष प्राति कही तो कोई भी डाक्टर इलाज करने को तैयार न होगा। जा सकती है तब सदोष प्रवृति किम करेंगे । ३-भावना के साथ सुख दुःख का खास सच तो यह हैं कि प्रवृत्ति को निर्दोष कहना सम्बन्ध है । चोरी करते समय जो भय उद्वेग ही व्यर्थ है। आदि पैदा होते हैं वे चोरी की भावना पर ही उदा-बटन्यो यि प.प करने वाला न निर्भर हैं। भल से अगर हम किसी की चीज तो निःस्वार्थ है न फलाफलविवेकी । अपने स्वार्थ उठालें तो हमें चोर के समान मानसिक केश का के लिये जो उपयोगी हैं उनकी भलाई बुराई भी अनुभव न करना पड़ेगा। अपनी भलाई बुराई है। अथवा मोह या अभि४-हमारी भावना का दूसरेके दिल पर अधिक मानवश जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं उन प्रभाव पड़ता है । एक बालक को प्रेमपूर्वक जोर से की भलाई बुराई भी अपनी भलाई बुराई है। थपथपाने पर भी प्रसन्नता होती है किन्तु क्रोध इसलिये स्वार्थ का क्षेत्र अपनी भलाई बुराई नकः पूर्वक उंगली का स्पर्श भी मान नहीं होता। कैसा सीमित नहीं है। घर कुटुम्ब जाति राष्ट्र आदि भी कार्य हो परन्तु उसके मूल में जो भावना होती भी स्वार्थ की सीमा में समा जाते हैं। हां, यह है उससे हमें और दूसरों के प्रसन्नता मिलती है। अवश्य है कि जिम सीमा जिनन बताण है इससे मालूम होता है कि सदाचार और उस वह उतना ही उदार या महान है ! इस उदाके फन्ट विश्वकल्याण के साथ मनकी शुद्धि का रता की दृष्टि में प्राणियों क. माहिती सब से अधिक मम्बन्ध है । मनकी शुद्धि होने पर हैं जिन्हें उदारपद करने हैं-१ परमस्त्रार्थी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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