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________________ २१७ ] अपने देश की भने जाओ तो दूसरे देश की प्रवृत्ति का त्याग ही श्रेष्ठ है। तब उनय-निवृत्त को दूसरा नहीं परि नम्बर देना चाहिये । सन्यामृत उपर दो पहलू हर एक चीन के होते हैं जैसे अयु 'त्त के दो पहलू हैं बने निवृत्ति के भी । निवृत्ति मे या तो हमें तुरंत ही आत्महत्या करना पड़ेगी अथवा दूसरों के ऊपर अपना बोझ डालना पड़ेगा इसलिये अपने जीवन को भारत बनाना पड़ेगा | इसके अतिरिक्त निवृत्ति से जीवन आलसी या जड़ बन जायगा साथ ही उसमे लापर्वाही और अहंकार आजायेगा इसलिये एकान्त निवृत्ति ठीक नहीं । प्रवृत्ति हो या निवृत्ति सब के दो पहलू हैं इसलिये दोनों के विषय में विवेक से काम लेना पड़ेगा और उसमें इसबात का विचार करना पड़ेगा कि उससे सामूहिक दृष्टि से सुखवर्धन होता है या नहीं, जैसा कि जीवनदृष्टि अध्याय में बताया गया है, अगर सामूहिक दृष्टिसे सुखवर्धन होता है। तो वह सदाचार या धर्म का अंग है। दान आदि शुभ कार्यों में अगर फलाफलविवेक और निस्वार्थता अर्थात् वीतरागता से काम लिया जाय तो उससे पर्याप्त सुखवर्धन होगा हानि अगर होगी तो नाम मात्र की होगी जिसे लाभ के आगे उपेक्षणीय ही समझना पड़ेगा | अणुभर दुःख के या दुरुपयोग के डर से अगर मन भर सुख की अवहेलना की जाने लगेगी तो विश्वसुखवर्धन कभी न होगा इस प्रकार हमारे जीवन का ध्येय द्दा नष्ट जायगा । इसलिये विश्वर्धन के कि जो प्रवृत्ति आवश्यक हो उसका त्याग न करना चाहिये। हां, उसमें फटाफटविवेक और ता से काम लेना चाहिये । ऊपर जो दान देने और देशसेवा के दुरु-. पयोग के उदाहरण दिये गये हैं उनमें अगर फलाफलविवेक और वीतरागता से काम लिया जाय तो उनका दुरुपयोग न होगा । लेनेवाला कौन है वह किस अधिकार से ले रहा है वह सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग इन बातों का विचार फलाफलविवेक है । और दान देते समय कर्तव्यबुद्धि रखना कोई दुःस्वार्थ भाव न रखना वीतरागता है । दान के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। परन्तु वह दान के प्रकरण का ही विषय है । देशसेवा में भी फलाफलविवेक और वीतरागता की ज़रूरत है । अगर देशसेवा का फल हो तो ऐसी देश सेवा से दूर रहना चाहिये । दूसरे मनुष्यों के न्यायोचित अधिकारों का नाश राष्ट्रीयता का फल मनुष्यता की हत्या हो तो वह राष्ट्रीयता पाप है । साथ ही देश सेवा में न्याय की रक्षा अन्याय का प्रतीकार पतितों का उद्धार का ही भाव होना चाहिये उसकी ओट में अपने व्यक्तित्व की विजय या और किसी तरह का दुःस्वार्थ न होना चाहिये यह वीतरागता है । प्रश्न- फलाफलविवेक और वीतरागता सं प्रवृत्ति की काली बाजू बहुत कम हो जाती है, फिर भी न तो प्रत्येक मनुष्य पूर्ण होता है न प्रकृति हमारी इच्छा के अनुसार कार्य करती है इसलिये फलाफल विवेक और वीतरागता रख करके भी प्रवृत्ति से सुखवर्धन का निश्चय नहीं किया जा सकता। हमें यहां सदाचार का विचार करना है मन की शुद्धि का नहीं । उत्तर- प्रत्येक मनुष्य क्या कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं होता । मनुष्य तो सदाचार के लिये इतना ही कर सकता है कि वह अपनी भावना या परिणाम शुद्ध रक्खे और शुद्ध भावना के
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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