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________________ ३२२ ] भय बताकर अपने को योगी अवतार आदि कहना इस प्रकार अपनी पूजा कराने के लिये जगत को ठगना ठगचोरी है । सत्यामृत किसी आदमी से प्रेम का व्यवहार रखना और उसके साधारण रहस्यों या उद्गारों को दूसरों के सामने ऐसी चतुराई से रखना कि वह और हम प्रशंसित हो जाँय यह भी ठगचोरी है। धन की ठगचोरी के समान नाम की ठगचोरी के भी असंख्य प्रकार हैं। ४ उद्घाटकचोर - किसी न किसी अंश में सुरक्षित रक्खी हुई दूसरे के यश नाम आदि बढ़ानेवाली चीज को चुराकर उसके सहारे अपना नाम फैलाना उद्घाटकचोरी है। जैसे किसी की रचना --जो कि हस्तलिखित है-- चुराकर अपने नाम से प्रकाशित कर देना। किसी के किये गये आविष्कार को चुरालेना। किसी के भाव लेकर पहिले ही उन्हें अपने नाम से प्रकाशित कर देना आदि । यह सब उद्घाटकचोरी है । 1 ५ बलात् चोर - किसी की कृति को जबर्दस्ती चुराना, मूल रचयिता उसे प्रकाशित न कर पाये इसके पहले खुद अपने नाम से प्रकाशित करना और मूल रचयिता के प्रकाशन में बाधा डालना आदि चलतू चोरी है । जबर्दस्ती दूसरे का यश आदि छीनना चोरी है। 1 ६ घातक चोर - दूसरे के यश सम्मान आदि छीनने के लिये उसे मारना उस की झूठी निन्दा करना आदि घातकचोरी है । उपकार उपकारचोर - यद्यपि नामचोरों चोरों का वर्णन हो जाता है फिर भी संक्षेप में उनका कुछ दिग्दर्शन कर दिया जाता है। धनचोरों के प्रकरण में शंका समाधान किया गया उससे इस प्रकरण की भी शंकाओंका समाधान हो जायगा । (क) विनिमयचोरी -- प्रत्युपकार कम करके भी यह बताना कि हमने पूरा बदला चुका दिया । तुम हमारा यह काम करदो मैं तुम्हारा वह करता हूं। ऐसी शर्त होने पर अपनी तरफ से पूरा काम न करना विनिमयचोरी है । (ख) विभागचोर -- अधिक उपकारी का कम उपकार मानना और कम का ज्यादा मानना । जैसे मातापिता सासससुर और गुरु आदि के उपकारों को इसलिये गौण करदेना कि सुव्यवस्था मामूली शिष्टाचार आदि उपकारों को अधिक लिये वे कुछ अंकुश रखते हैं और दूसरों के महत्व देना क्योंकि संघर्षण न होने से वे अंकुश नहीं रखते सिर्फ मीठी बातें करते हैं । (ग) अनुज्ञा चोरी - उपकार के बदले में धन्यवाद आदि न देना, उचित होनेपर भी बेनकफी के नामपर न देना अनुज्ञा चोरों है । लज्जा आदि के कारण धम्मवाद न देसके, घनिष्टता के कारण धन्यवाद न दे तो बात दूसरी है। पर उचित धनिष्टता भी न हो, लज्जा का भी कारण न हो होगी । बेतकल्लुफी का अतिवाद हो तो अनुज्ञाचे रा (घ) भिक्षाचोरी उपकार की आवश्यकता न होने पर भी आलस्यादि के कारण उपकार की भिक्षा माँगना निक्षाचोरी है। जैसे पानी खींचने की तातक रखने पर भी आलस्य या लज्जा के कारण किसी से कहना जरा पानी खींच दीजिये मुझ से खिंचता नहीं है । दे या विनिमय के सिद्धान्त के अनुसार जहां शक्ति न हो, या शिष्टतावश कोई खींच किसी से सेवा लेना अनुचित न हो, या एक ही काम करने में एक को कम कठिनाई हो और
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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