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________________ भगवती के अंग कहकर यश आदि छूटना भी नाम की नज़र चोरी है । प्रश्न- विचारों का ठेका कहाँ तक लिया ना सकता है ? विचारों का आदान-प्रदान जगत में ऐसा होता रहता है कि यह कहना कि ये अमुक के विचार हैं, कठिन है । बहुत से विचार तो की सम्पत्ति हो जाते हैं, यह भी होता कि इनको सबसे विचार मालूम नहीं पहले किनने प्रगट किया ! तब मनुष्य चोरी से कहाँतक बच सकता है ? उर- जिस प्रकार नदी आदि सर्व साधारण की सम्पत्ति होने से उस में से पानी लेना चोरी नहीं है उसी प्रकार जो विचार साधारण जनता की सम्पत्ति बन गये हैं जिनके विषय में कोई दूसरा व्यक्ति दावा नहीं कर सकता कि ये मेरे मौलिक विचार हैं उन्हें हम अपनी मौलिकता की छाप लगाये बिना प्रगट करें तां चोरी नहीं है। यह भी हो सकता है कि कोई विचार हमारा मौलिक विचार ही हो हमने दूसरों से न लिया हो उसे मौलिक मानकर भी प्रगट करना चोरी नहीं है । पर कल्पना करो हमने किसी की पुस्तकका अध्ययन किया उसकी बातें हमें अच्छी लगी फिर इस प्रकार की इच्छा पूर्वक, कि कोई यह न समझे कि मैं ये विचार उस पुस्तक के बोल रहा हूँ, उस पुस्तक के विचार प्रगट करना चोरी है । मुख्य बात मन की है । मन में चोरी है तो चोरी है अन्यथा ऐसे बहुत से अवसर आते हैं जहाँ दूसरों के विचार प्रगट करने में दूसरों का उल्लेख करना अनावश्यक होता है । जैसे 1 १- जो विचार अपौरुषेय होगये है अर्थात् जिनके कर्ता का पता नहीं है उनका [ ३२२ उपयोग जैसे चकिया जा सकता है सिर्फ अपने नामकी छाप न लगाना चाहिये । २- कुछ विचार अमुक व्यक्ति के नाम से इतने गये हैं कि उनका कर्ता कोई हमें नहीं मानता। वे विचार शास्त्रीय विचार बन गये हैं जैसे गुरुवाकर्षण का सिद्धान्त, पृथ्वी को गोल और चलती हुई मानने का सिद्धान्त आदि । (३) ऐसी जगह जहाँ हमें कोई विचारक के रूप में नहीं देखता, जहाँपर चाहे शाख की बातें कहो चाहे अपने मौलिक विचार को श्रोता सब को शास्त्रीय बातें ही समझते हैं वहाँ किसी का नाम लिये बिना दूसरे के विचार प्रगट करना चोरी नहीं है। इत्यादि अनेक अवसर ऐसे हो सकते हैं जहाँ नाम लेने की ज़रूरत नहीं है। पर जहाँ श्रोता का मन जिज्ञासा कर सकता हो कि ये किसके विचार हैं वहाँ नाम लेना जरूरी है, जहाँ मूल विचारक का नाम लेनेसे विचारों का मूल्य चढ़ना हो वहाँ भी नाम लेना जरूरी है। मतलब यह है कि दूसरों का कर्तव्य जानबूझकर न छिपाना चाहिये, न उस पर अपने कर्तृत्व की छाप लगाना चाहिये। ऐसा किया जायगा तो यह चोरी हो जायगी। दूसरे की रचना को अपने नाम से प्रकाशित करना भी नज़रचोरी है । ३ उगचोर - नाम यश आदर आदि लूटने या छीनने के लिये ऐसी चालें चलना जिससे दूसरों को लाभ न हो या हानि हो या लाभ से हानि अधिक हो पर अपने को यश आदि मिल जाय । जैसे साधु वेप लेकर, दूसरों को कल्पित
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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