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________________ भगवती के अंग [ ३२० शब्दों की ओट मिल जाने पर भी दिल के पाप हो या किसी दुनिनके अहंकार को अबहेलना प्रय नहीं छिपते इसलिये छन्न चोरी निःसार नो करना हो तो क्या अनमोरी होगी ! है ही, सार ही ईष्या द्वेष घृणा आदि बढ़ाने- उनर .... ऐसी हालत में तो जो दुरयाली होने से अपना और पराया काफी नुकसान भिमानी है, हमारे आत्मगौरव की रक्षा नहीं करता करती है। वही अनुज्ञाचोर है। प्रश्न अपने को तीर्थकर पैगम्बर आदि सार यह है कि कोई मकर: विनय या घोषित करना बिभागोर है या नहीं? शिष्टाचार के का कहनसके और उसकी . उत्तर- जिसने तीर्थ की स्थापना की वह इस सजनता का उपयोग उसके यश सन्मान नीर्थकर है, घोषित करे या न करे वह विभागचोर आदि को कम करने या नष्ट करने में किया जाय नहीं । करीब यही बात पैगम्बर के लिये है । जो और प्रदर्शित यह किया जाय कि इसमें उसकी सत्य का पैगाम लाया मा पुरुष अनुज्ञा है, अनुमति है नया अनाचार है। पैगम्बर है । पर इस में मख्यता जनहित की होना (घ) नर-मति मांगने से नाम नहीं चाहिये । दूसरों के व्यक्तित्व को अवहेलना और अपने मिलता फिर भी कुछ लोग मोहवश इसकी भी व्यक्तित्व का मिपामाईन विना- है। मिक्षा मांगते है । किसी तरह हमारा नाम आप महान बन जाने पर कोई सार्थक महान विशेषण नरामेछाप दीजिये आदि नामकी भिक्षालग ही जाता है पर महान कहलाने के लिये नाम चोरी है। जनहित के लिये आवश्यक हो तो बात के पीछे महान विशेषण लगाना विमान है। दमरी यह भिक्षा ही नहीं है और कही भिक्षा वह निरर्थक और हास्यास्पद ही नहीं है बाकी का रूप धारण भी करले तो भी यह तबतक मुद की भी नाशक है। भित्र नहीं है जब तक जनहित के लिये या (ग) अनुज्ञाचर --- चेतक की बहाने किसी न्याय के लिये आवश्यक है। का सन्मान यश आदि छीनलेना अनु. है। (ङ) र ... कुछ करते धरते तुम किसी सन्माननीय व्यक्ति के यहां जाओ और नहीं है सिनाम बढ़ाने के लिय सहयोग का शिष्टाचार भूलकर उसकी कुसौंपर जा बैठो उसको ढोंग करते है वे कमाइकोर है । ये बिना एक साधारण व्यक्ति की तरह सम्बोधित करे पैसे की हरएक सभा सदस्य बन ... न कि तुम्हारे और उसके भीतरी और बाहरी जिज्ञासा हो, न कर देने का भाव हो फिर भी व्यक्तित्व को देखते हुए अनुचित है. तो संकोच अपने नाम की गिनती कराने के लिये सब जगह वह कुछ कहे या न कहे, पर तुम अनुज्ञा- पहुँचेंगे, बिना समझे ही हरएक का समर्थन करेंगे चोर होजाओगे । इस अनुज्ञ चोरी से बचने के या विरोध करेगे। जो कर्मठ है, हर जगह कुछ न टेये शिष्टाचार के नियम बनाये जाते हैं। पर कुछ कर सकते। ऐसे लोगे के भवन में भी कोरे- नियमों से नियन्त्रण नहीं है:--मीर ऐसी बहुमुखी प्रवृत्तियाँ देखी जाती है पर यह संगम ही चाहिये। कर्मठबा न होने पर भी सिर्फ नाम के लिये जो प्रश्न - अपने आत्मगौरव की रक्षा करना अपना सब जगह प्रदर्शन करते है और दूसरों
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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