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________________ ३१३ ] सत्यामत पर जहाँ हमारे मनमें लोभ है, ठगने की वृत्ति है करना और उससे जीविका चलाना कणग्राही छिपाने की भावना है उतने अंश में चोरी है। चोरी है। बहुत से आदमी खरीददार या व्यापारी क्योंकि जिसकी चीज लीजाती है उसे करीब बनकर दुकानों पर जाते हैं, मुट्ठी-आधी मुट्ठी करीब वैसा ही कष्ट होता है जैसा चीज चुराये अनाज लेकर भाव वगैरह पूछते हैं और नमूने के जाने पर होता है। बहाने वह मुट्ठीभर अनाज रखलेते हैं इस प्रकार -भिक्षाचौर-- अकर्मण्यता आलस्य आदि बीसों दुकानों से काफी अनाज इकट्ठा करलेते हैं के कारण भिक्षा को एक जीविका बनालेना, वे कगन हीचौर है। झूठी जरूरत बताकर लोगों से धन माँगलेना च-प्रमादचोर-अपने प्रमाद से दूसरे के आदि भिक्षाचोरी है । जो भिक्षा विनिमय के धनको अनावश्यक खर्च करनेवाले या लापर्वाही सिद्धान्त पर खड़ी है या साधुता के लिये है वह से खर्च करनेवाले, रक्षण की जिम्मेदारी लेकर भी भिक्षाचोरी नहीं है। पुराने समय में ब्राह्मण वर्ग रक्षण न करनेवाले प्रमादचोर है। जब समाज को निःशुल्क विद्यादान करता अगर हमें कहीं का प्रबन्धक बनादिया जाय था और समाज से भिक्षा लेता था वह विनिमय और यह सोचकर कि अपना तो कुछ खर्च होता का एक तरीका था-भिक्षा नहीं । मन को नही हे मालिक की इच्छा बाइर मनचाहा खचे माध भी मिला लें तो भी यह एक तरह का करें तो हम प्रमादचार है। विनिमय होगा--मिशा नही । पर अपनी झूठी दोनता बताकर जो योनी से धन ऐंटते हैं वे भी प्रश्न-बग्में हम कैसे भी रहे पर बाहर तो भिरभिन मंग के लिये जो साध हमें सभ्यता के खयाल से कुछ उदारता का होते ये भी मिलावर हैं। गलियों में परिचय देना ही पड़ता है। प्रबन्धक बनने पर भी अन रखकर भिक्षा मावाने, अपने बच्चों को हम ऐसा ही काम करना पड़ता है। इसमें प्रमादअनाव कइयाकर मिक्षा भगवानेवटे, अंगभंग चोरी क्या हुई! कदोग करनेवाले आदि भिक्षाचोर है। उत्तर-घरकी बातमें हम जितने चाहें उतने ___मन बने कि निः जहाँ विनिमय के उदार बन सकते हैं पर दूसरे के खर्च की जिम्मेलिये है या साधुता पर खड़ी है, अथवा अयोग्यता दारी जब हमारे ऊपर हो तब हमें सतर्कता के आदि के कारण भिक्षा के सिवाय जीवन निर्व साथ कमसे कम खर्च करना चाहिये । हां, अवसर का कोई साधन नहीं रहगया है अथवा सब अवश्य देख देना चाहिये, साथ ही जो उस धन कोशिश करने पर भी नौकरी मजदुरी आदि का अनदीखनी है या हमसे ऊपरी अधिकारी न मिलती है जबकि वह सब तरह के परिश्रम है उसकी इच्छा का भी स्वयाल रखना चाहिये । करने को तैयार है, ऐसी हालत में भिक्षा माँगना भी कार्य को बिगाड़ना न चाहिये । समामिक्षाचोरी नहीं है अन्यथा निशाचोर रोह के अवसर पर साधारण उदारता आजाना (ड)-काणन ह चोर--नमूना देखने के बहाने एकबात है पर अपने बाप का क्या जाता है, ऐसा या और किसी बहाने कण कण-घोड़ा थोड़ा-इकट्ठ! समचकर भुखमरे के समानः उरे के समान एक
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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