SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती के अंग अथवा कुछ कारणों से जिसकी आवश्यकता भारी है। जहाँ ये नहीं है, प्रेम विनय सफाई बहुत है ऐसे व्यक्ति के माय विनर और मन और निर्भयता है वहां नहीं है। कुछ विशेष रियायत करना पड़ती है। अगर इसे (ग अनुवानोर की अनुज्ञा की पर्वाह विभाग कहा जाय तो घर का काम चलना न करके ये के नाम पर दूसरे की चीज़ मुश्किल हो जायगा। ले लेना अनुज्ञा चोरी है। उत्तर- यकायोग्य विभाजन का नाम की एक श्रीमान् जी जो जरूरत से ज्यादा नहीं है । जहाँ विकार है वहाँ इस प्रकार कंजस थ भोजन करने के बाद एक गरीब आदमी की विषमता किसी को न तो असह्य होती है न के यहां तुरंत पहुँचते और सरीता माँगकर तुरंत किसी के मन में विकार होता है, मौनरूप में सर्व- सुपारी खाजाते । दो चार दिन तो बेचारे गरीब सम्मति य म न करती है, ऐसी आदमीन सेटजी की कृपा समझी, सरलता समझी घटनाओं में विभा चोरी नहीं है । यहाँ तो पर सेटजी का यह क्रम चलता ही रहा। अन्तमें औचित्यका खयाल रखा जाता है, जिनका गरीब आदमी को बहाने करने पड़े और सेठ जी रक्खा जाता है। विभागचौरी में मोह की इतनी से सुपारी बचाये रखने के लिये ऐसा ही सतर्क प्रबलता रहती है कि वहाँ .... . विनय- होना पड़ा जैसे चोर से सुरक्षित रहने के लिये न अविनय का विवेक नहीं रहता। पड़ता है। अच्छी चीज़ है पर इतनी प्रश्न-बिग में अगर गरीबों को- दीन मात्रामें न होना चाहिये किस रा और उसे दुःटियों को अधिक दिया जाय तो इसे क्या बेतकल्लुफी से बचने के लिये प्रयत्न करना पड़े। विभागचोरी कहेंगे! नाक के नामपर किसी की चीज उसकी उत्तर-यहां चोरी हो भी सकती है और इच्छा के बिना लेलेना और उसे ऐसी स्थिति डालना जिससे वह मना न कर सके एक तरह नहीं भी। अगर मालिक से छिपाने का भाव नहीं की चोरी है। है और न यश या धन्यवाद लूटने का भाव है, बल्कि गरीबों का आशीर्वाद स्वद न लेकर मालिक प्रश्न-व्यवहार में नेता बटन ही है इस को दिया जाता है और इसके लिये कहा जाता चोरी क्यों कहना चाहिये ! बात बात में तकल्लुफ है कि इसमें हमारी क्या बड़ाई है, हम तो सिर्फ करने से तो मनुम अकारक नर बन जायगा। बाँटनेवाले हैं उपकार तो उसका है जो इस माल उतर-बार बार में तकल्लुफ करना अतिको बँटवाता है आदि, तो गरीबों के साथ पक्षपात वाद है और बिलकुल लकड़क होजाना भी करना पुण्य ही है। अगर दूसरे के मालपर यश अतिवाद है। काली निरलिया है। अगर हम घोड़े लूटने की इच्छा है, और यह कहा जाता है कि सेमी विवेक से काम लें तो हमें यह समझने में मालिक तो अधिक देना ही नहीं चाहता यह तो देर न लगेगी कि कितनी नाम दूसरे को मैं हूं जो तुम्हें अधिक देरहा है, तो यह विभाग- अच्छी लगरही है या वह प्रसन्नता से सहसकता चोरी है। जहाँ मोह, अभिमान और छल है, वहां है बस उत्तन, वेतका अनुज्ञाचोरी नहीं है।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy