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________________ भगवती के अंग [ ३१० दावा चालू रहता है । बहुतसी संस्थाओं के वस्तुओं के विनिमय में या परिश्रम के विनिक में इतने ढीले हैं कि वह कम से मय में थोड़ी बहुत नाविकता हो ही जाती है। कम, अधिक से अधिक बनजाता है फिर भी काम का वेग एक सरीखा नहीं रहता, दो चार कम से कम का मिनिट के लिये हाथ ढीला पड़ जाना या रुक साधु संस्था के जाना स्वाभाविक है पर इस स्वाभाविकता की ओट में मुफ्तयोरी पिना, आलस्य छिपाना, लोभ मोह छिपाना चोरी है । ति के बहाने से वह अपना शाब्दिक बचाव कर जाता है पर दूसरे का नुकसान तो होता ही है उससे वह दुःखी भी होता इसलिये यह चोरी छन्न होने पर भी समाज के दु:ख आदि तो बढ़ाती ही है। दूकानदारों की धूर्तता से बचने के लिये ग्राहकों को चौकन्ना रहना पड़ता है। समय और शक्ति बर्बाद करना पड़ती है मज़दूरों के कामचोरपन से रक्षित रहने के लिये महँगे निरीक्षक रखना पड़ते हैं फिर भी कामचोर अपना चोरपन दिखाते ही हैं इसलिये असन्तोष रहता है। इससे मज़दूरों की या दूकानदार आदि की इज्जत जाती है ग्राहक या काम करानेवाले की हानि होने से द्वेष, खेद आदि बढ़ते हैं । इस प्रकार यह छन्न चोरी मानव समाज के बहुत कष्ट बढ़ाती है, अविश्वास और द्वेष बढ़ाती है, पारस्परिक सम्मान नष्ट करती है। इसके साथ विनिमय की दर भी गिरजाती है ग्राहक मूल्य कम देता है, मालिक मज़दूरी कम देता है। इस प्रकार विनिमय चोरों का अर्थलाभ नष्ट सा ही होजाता है पर सामूहिक रूपमें मनुष्य समाज में अशान्ति द्वेष अविश्वास आदि बढ़कर दुःख बढ़ जाता है । में यह बीमारी पाई जाती है या आजाती है । ऐसे आदमियों को उतनी ही मिरी लेना चाहिये जितनी वे बिना खेद के निभा सकें और फिर उसके बाजारू मूल्य से कम मूल्य लै तब तो उनकी साधुता या सेवकता है अन्यथा विनिमय चोरी है। अपने पहिले के जीवन से अधिक आराम कोमल, तनकमिजाजी बन जाना, छोटे से छोटे बहाने की ओट में अकर्मव्यता का पोषण करना आदि विनिमय चोरी के कारण है। इससे साधुता और सेवकता कलंकित होती है, हमारा जीवन बोझ बनता है, अपयश और तिरस्कार भी सहना पड़ता है, अंत में संस्था नष्ट या नष्टप्रायः होजाती है, हमारा पतन होता है और समाज को हानि होती है । किसी के संकोच का अनुचित लाभ उठाना भी विनिमय चोरी है, जैसे कोई जनपरिचान का मित्र आया और उससे साधारण ग्राहक से भी अधिक मूल्य लेलिया क्योंकि वह संकोच अधिक बात कह नहीं सकता यह विनिमय चोरी है । एकबार एक भाईने एक दुकानदार से कहा आज तो तुम्हारी काफी बिक्री हुई। दुकानदार ने उत्तर दिया । हुई तो मगर उससे क्या, कोई जान पहिचान का ग्राहक तो आया ही नहीं। इस प्रकार के संकोची विनम्र हैं । किसी के संकट का अनुचित उपयोग कर लेना भी विनिमय चोरी है । जैसे एक आदमी भूख तड़प रहा है, उसके पास पैसा है पर खाद्य पदार्थ नहीं है उसकी इस परिस्थितिको जो लोग साधुता की और सेवा की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेलेते हैं पर उसे पूरी तरह निभाते नहीं हैं वे भी विनिमयचोर हैं। यद्यपि साधुता के नामपर वे समाज से कम से कम लेते
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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