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________________ कृष्ण-गीता रसरंग हृदय में हो सब ही, फिर भी मन चंचल हो न सके। पानी में भीजे पैर नही, फिर सिन्धु तरूं बोलो कैसे ॥ १७ ॥ 'जब चाह नहीं तब राह कहाँ' बे-मतलब कैसे राह चलूं । मदिरा का कुछ भी मोह न हो फिर चषक भरूं बोलो कैसे ॥१८॥ मनमोहन तुम मुसकाते हो, पर मेरी कठिन कहानी है। काँटों की सेज बिछी है जब, तब पैर धरूं बोलो कैसे ॥ १९ ॥ श्रीकृष्ण (गीत ९) भोले भाई मत भूल यहां, दुनिया यह नाटक-शाला है । सब भूल रहे असली स्वरूप, बन रहा जगत मतवाला है ॥२०॥ बनता है कोई बन्धु यहां, बनता है शत्रु यहां कोई । कोई घर का है अंधकार कोई जग का उजियाला है ॥ २१ ॥ ले वेष भिखारी का कोई, कण कण को भी मुँहताज बना। ऐयाश बना दिखता कोई, पीता मदिरा का प्याला है ॥२२॥ भिल्लिनी रूप रखकर कोई, गुजाओं में शृङ्गार करे। ले लिया किसी ने राज-वेष, पहिनी मणियों की माला है ॥२३॥ कोई नुकीट कहलाता है, जिसको न पूछता है कोई । कोई महिमा का सागर है, घर घर में जिमका चाला है ॥२४॥ अपने अपने में मस्त बने, सब खेल खेलते हैं अपना । तू भी अपना यह खेल खेल, जो सुंदर खेल निकाला है ॥२५॥ जैसा है तुझ को वेष मिला वैसा तु भी रंगढंग दिखा । सब बन्धु बन्धु हैं यहां किन्तु, नाटक का रंग निराला है ॥२६॥ रोले हँसले मिलले लड़ले, जैसा अवसर हो सब कर ले पर समभावी रह भूल नहीं, तू नाटक करनेवाला है ॥ २७ ।
SR No.010814
Book TitleKrushna Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1995
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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