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________________ १०४ योगशास्त्र : एकादशम प्रकाश लघुवर्णपञ्चकोगिरण. ल्यकालमवाप्य शैलेशीम् । क्षपयति युगपत् परितो, वेद्यायुर्नामगोत्राणि ॥५७॥ अर्थ - तदनन्तर 'अ, इ, उ, ऋ, लृ' इन पांच ह्रस्व-स्वरों को बोलने में जितना समय लगता है, उतने समय तक में शैलेशी अवस्था अर्थात् मेरुपर्वत के समान निश्चल दशा प्राप्त करके एक साथ वह वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म को मूल से य कर देता है । उसके बाद औदारिक-तैजस-कार्मणानि संसारमूलकारणानि । हित्वेह ऋजुण्या समयेनैकेन याति लोकान्तम् ॥ ५८ ॥ अर्थ-संसार के मूलकारणभूत औदारिक, तेजस, और कार्माणरूप शरीरों का त्याग करके विग्रह-रहित जुश्रेणी से दूसरे आकाशप्रदेश को स्पर्श किए बिना एक समय में (दूसरे समय का स्पर्श किए बिना) लोक के अन्तभाग में सिद्धक्षेत्र में साकार - उपयोगसहित आत्मा पहुंच जाता है । कहा भी है- 'इस पृथ्वीतल पर अंतिम शरीर का त्याग करके वहाँ जा कर आत्मा सिद्धि प्राप्त करता है।' यहां प्रश्न होता है कि 'जीव ऊपर जाते समय लोकान्त से आगे क्यो नहीं जाता ? अथवा शरीर का त्याग कर धरती के नीचे या तिरछा क्यों नहीं जाता है ? इसका उत्तर देते हैं--- नोर्ध्वमुपग्रहविरहादधोऽपि वा नैव गौरवाभावात् । योग-प्रयोग-विगमात् न तिर्यगपि तस्य गतिरस्ति ॥ ५६ ॥ अर्थ-सिद्धात्मा लोक से ऊपर अलोकाकाश में नहीं जाता, क्योंकि जैसे मछली की गति में सहायक जल है, वैसे ही जीव की गति में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य है, वह लोकान्त के ऊपर नहीं होने से जीव आगे नहीं जा सकता; तथा वह आत्मा नीचे भी नहीं जाती ; क्योंकि उसमें गुस्ता नहीं है और कायादि योग और उसकी प्रेरणा, इन दोनों का अभाव होने से तिरछा भी नहीं जाता है । यहां कर्म से मुक्त होने पर आत्मा को ऊपर जाने के लिए प्रदेश तो मर्यादित है, इसलिए उसकी गति नहीं होनी चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार करते हैं लाघवयोगाद् धूमवदला. फलवच्च संगविरहेण । न्धनावर हादेरण्डवच्च सिद्धस्य गतिरूर्ध्वम् ॥ ६० ॥ अर्थ - सिद्ध परमात्मा के जीव (आत्मा) को लघुताधर्म के कारण घुंए के समान ऊर्ध्वगति होती है तथा संगरहित होने से तथाविध परिणाम से ऊपर हो जाता है। जैसे तुबे पर संयोगरूप मिट्टी के आठ लेप किये हों तो उसके वजनदार हो जाने से मिट्टी के संग से वह जल में डूब जाता है, परन्तु पानी के संयोग से क्रमश: लेप दूर हो जाता है, तब वह तुम्बा हलका हो जाने पर पानी के ऊपर स्वाभाविक रूप से अपने आप आ जाता है; उसी प्रकार कर्मलेप से मुक्त जीव भी अपने आप लोकान्त तक पहुंच जाता है । कोश से मुक्त एरंड का बीज ऊपर की ओर जाता है, वैसे ही फर्मबन्ध से मुक्त सिद्ध की ऊर्ध्वगति होती है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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