SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलीसमुद्घात के समय त्रियोगों का निरोध पौर शुक्लध्यान के प्रकार उमास्वाति ने प्रशमरति के २७५ और २७६ श्लोक में कहा है-"समुदपातकाल में पहले और बाठवें में बौदारिक शरीर का योग होता है, सातव, छठे और दूसरे समय में मिश्र बौदारिक योग होता है तथा चौथे, पांचवे और तीसरे समय में कार्माण शरीर-योग होता है, और इन तीनों समयों में नियम से वे अनाहारक होते हैं ।" समुद्घात का त्याग करने के बाद यदि आवश्यकता हो तो ये तीनों योगों का व्यापार करते हैं। जैसे कि कोई अनुत्तरदेव मन से प्रश्न पूछे तो सत्य या असत्यामृषा मनोयोग की प्रवृत्ति करे, इसी प्रकार किसी को सम्बोधन आदि करने में, उसी प्रकार वचनयोग के व्यापार करते हैं। अन्य दो प्रकार के योग से व्यापार नहीं करते। दोनों भी बौदारिक काययोग-फलक वापिस अर्पण करने आदि में व्यापार करते हैं। उसके बाद अंतम हुर्तमात्र समय में योग-निरोध प्रारम्भ करते हैं। इन तीनों योगों के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर । केवलज्ञान होने के बाद इन दोनों प्रकार के योगों का उत्तरकाल जघन्य अंतमहतं का है और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि काल तक सयोगीकेवली विचरण कर अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध करते हैं। जब उनका आयुष्य केवल अंतमहतं शेष रहता है, तब वे प्रथम बादर काययोग से बादर वचनयोग और मनोयोग को रोकते हैं, उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादरकाययोग को रोकते हैं । बादर काययोग होता है, तब सूक्ष्मयोग को रोकना अशक्य है, दौड़ता हुमा मनुष्य अकस्मात अपनी गति को नहीं रोक सकता, धीरे-धीरे ही रोक सकता है। उसी तरह सर्व बादर योग का निरोध करने के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्मवचन और मनोयोग का निरोध करते हैं, उसके बाद सूक्ष्मक्रिया-अनिवति शुक्लध्यान करते हुए अपनी आत्मा से ही सूक्ष्म कायायोग का निरोध करते हैं। इसी बात को तीन श्लोकों द्वारा कहते हैं श्रीमानचिन्त्यवीर्यः शरीरयोगेऽथ बादरे स्थित्वा । अचिरादेव हि निरुणद्धि, बादरो वाङमनः-सयोगी ॥५३॥ सूक्ष्मेण काययोगेन, कायं योगं स बावरं रुन्ध्यात् । तस्मिन् अनिरुद्ध सति, शक्यो रोदन सूक्ष्मतनुयोगः ॥५४॥ वचन-मनोयोग-युगसूक्म निरुणद्धि सूक्ष्मतनुयोगात । विदधाति ततो ध्यानं सूक्ष्मक्रियमसूक्ष्मतनु-योगम् ॥५॥ अर्थ-केवलज्ञानाविक लक्ष्मी तथा अचिन्तनीय शक्ति से युक्त यह योगी बाबर कायायोग का अवलम्बन ले कर बादर वचनयोग और मनोयोग को शीघ्र ही रोक लेता है। फिर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकता है। क्योंकि बावर काययोग का निरोध किए बिना सूक्ष्म काययोग का निरोध नहीं हो सकता है। तदनन्तर सूक्ष्म काययोग से सक्ष्म वचन और सूक्ष्म मनोयोग का निरोष करते हैं। उसके बाद सूक्ष्मकाययोग से रहित सक्ष्म क्रियानिवति नाम का ध्यान करते हैं, इसी का दूसरा नाम 'समुच्छिन्नक्रिय है। तदनन्तरं नुसतयाविनेगा । अस्यान्ते क्षोयन्ते चातिकर्माणि चत्वारि ॥५६॥ अर्थ-उसके बाद अयोगो केवली बन कर वे समुछिन्तक्रिया नामक चौया शुक्लध्यान प्रकट करते हैं । इससे समस्त क्रियाएं बन्द हो जाती हैं। इसके अन्त में चार अघातिफर्मों का क्षय हो जाता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy