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________________ सिद्धपरमात्मा का स्वरूप, उनका निवास, तथा अन्य विवरण साविकमनन्तमनुपमम्, अव्यावाचं स्वभावजं सौख्यम् । प्राप्य सकवलशान शनो मोदते मुक्तः ॥११॥ __अर्थ-केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त सिद्धात्मा सर्वकर्मों से मुक्त हो कर सादि-अनंत अनुपम, अव्यायाध और स्वाभाविक पैदा होने वाले आत्मिक सुख को प्राप्त कर उसी में मग्न रहते हैं। व्याख्या-आदि-सहित हो वह सादिक कहलाता है। संसार में पहले कभी भी ऐसे सुब का अनुभव नहीं किया, इसलिए वह सुख सादिक है। इस सिद्ध-सुख का कभी अन्त नहीं होने से वह अनन्त-सुख है । सादि का अनन्तत्व कैसे हो सकता है ? क्योकि घटादि का नाश देखने से घटादि की आदि होती है,घन,हथोडे आदि के व्यापार से उसका नाश होता देखा जाता है। इसलिए क्षय होने पर उसमें से घट उत्पन्न होने से वह अनन्त नहीं कहलाता है। परन्तु आत्मा का कभी क्षयन होने से वह सुख अक्षय अनन्त है । अनुपम अर्थात् किसी भी उपमान के अभाव वाला सुख, प्रत्येक जीवों के अतीतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल के सांसारिक सुन्न एकत्रित करें, तो भो वह सुब एक सिद्ध के सुख का अनन्तवा भाग है । उनके सुख में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती है, शरीर और मन की पीड़ाबों का अभाव होने से वह सुख अव्याबाध है । स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाला सिद्ध का सुख सिर्फ आत्म स्वरूप से ही होने वाला सुख है । इस प्रकार सादि-अनन्त, अनुपम अव्याबाध बोर स्वाभाविक सुब से युक्त केवलज्ञान-केवलदर्शन-सम्पन्न मुक्त-आत्मा परमानन्द के अधिकारी होते हैं । ऐसा कह कर कितने ही दार्शनिक जो कहते हैं कि 'मुक्तात्मा सुख आदि गुणों से रहित और शान-दर्शनरहित होते हैं। उनके मत का खण्डन कर दिया है । वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं कि 'बुद्धि आदि नी बात्मा के विशेष गुणों का अत्यंत छेदन हो जाना मोक्ष है', अथवा जो प्रदीप का निर्वाण होने (बुझने) के समान मोक्ष को केवल अभावस्वरूप मानते हैं, उनके मत का भी निराकरण कर दिया है ! बुद्धि बादि गुणों के उच्छेदरूप या आत्मा के उच्छेद-रूप मोक्ष की इच्छा करना योग्य नही है ; कौन विवेकी बुद्धिशाली पुरुष अपने गुणों के उच्छेदन से युक्त या आत्मा के उच्छेदनरूप मोक्ष को चाहेगा ? इसलिए अनंतज्ञान-दर्शनसुख-वीर्यमय स्वरूप वाला सर्वप्रमाणों से सिद्ध मोक्ष ही युक्तियुक्त है । इस प्रकार परमाहत भीकुमारपाल राबा को विज्ञासा से बाचायची हेमचन्नाचार्य-सूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद्' नामक पट्टबड अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपविवरणसहित एकादश प्रकाश सम्पूर्ण हुआ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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