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________________ योगशास्त्र : एकादशम प्रकाश दण्ड- कपाटे मन्थानकं च समयत्रयेण निर्माय । तुयें समये लोकं, निःशेषं पुरयेद् योगी ॥ ५१ ॥ अर्थ-योगी तीन समय में दण्ड, कपाट और मथानी बना कर अपने आत्मप्रदेशों को फैला देता है, और चौथे समय में बीच के अन्तरों को पूरित कर समग्र लोक में व्याप्त हो जाता है। ६०२ व्याख्या - ध्यानस्थ केवली भगवान् ध्यान के बल से अपने आत्मप्रदेशों को शरीर के बाहर निकालते हैं । अर्थात् प्रथम समय में आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर ऊपर-नीचे लोकान्त तक उन्हें लोकप्रमाण दण्डाकार कर लेते हैं। दूसरे समय में उस दण्डाकार में से कपाट के समान आकार बना लेते हैं । अर्थात् आत्म-प्रदेशों को आगे-पीछे लोक में इस प्रकार फैलाते हैं कि जिसमे पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण दिशा में कपाट के समान बन जाते हैं। तीसरे समय में उस कपाट को मथानी के आकार का बना कर फैलाते हैं, इससे अधिकतर लोक परिपूरित हो जाता है। चौथे समय में योगी बीच के अन्तरों (खाली स्थानों) को पूरित कर चौदह राजूलोक में व्याप्त हो जाता है । इस तरह लोक को परिपूरित करते हुए अनुश्रेणी तक गमन होने से लोक के कोणों में भी आत्मप्रदेश पूरित हो जाते हैं । अर्थात चार समयों में समग्र लोकाकाश को अपने आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । जितने आत्म प्रदेश होते हैं, उतने ही लोकाकाश के प्रदेश हो जाते हैं । अतः प्रत्येक आकाशप्रदेश में एक-एक आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाता है । इसे 'लोकपूरक' कहा ऐसा सुन कर दूसरे दार्शनिक जो आत्मा को विभु अर्थात् सर्वव्यापी मानते हैं, उनके मत के साथ भी संगति हो जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि अन्य दर्शनों आत्मा को सर्वत्र चक्षुवाला, सर्वत्रमुखवाला, सर्वत्र बाहु वाला व सर्वत्र पैर वाला सारे लोक में व्यापक माना है । अब पांचवें आदि समय में वे क्या करते हैं ? उसे कहते हैं समयैस्ततश्चतुभिनिवर्तते लोकपूरणादस्मात् । विहितायुः समकर्मा, ध्यानी प्रतिलोममार्गे ॥५२॥ अर्थ- बार समय में को आयुकर्म के समान करके समेटते हैं । - समग्र लोक में आत्मप्रदेशों को व्याप्त करके अन्य कर्मों ध्यानी मुनि प्रतिलोम-क्रम से लोकपूरित कार्य को व्याख्या - इस प्रकार चार समय में आयुष्य को अन्य कर्मों की स्थिति के समान बना कर पांचवें समय में लोक में फैले हुए कर्म वाले आत्म प्रदेशों का संहरण कर सिकोड़ते हैं। छठे समय में मथानी के आकार को समेट लेते हैं, सातवं समय में कपाट के आकार को सिकोहते हैं और आठवें समय में दण्डाकार को समेट कर पूर्ववत अपने मूल शरीर में ही स्थित हो जाते हैं। समुद्घात के समय मन और वचन के योग का व्यापार नहीं होता। उस समय इन दोनों योगों का कोई प्रयोजन नहीं होता है, केवल एक काया-योग का ही व्यापार होता है । उसमें पहले और बाठवें समय में औदारिक काया की प्रधानता होने से औदारिक काययोग होता है। दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक शरीर से बाहर आत्मा का गमन होने से कार्माण वीर्य का परिस्पन्द-अत्यधिक कम्पन होने से औदारिक कार्माणमिश्र योग होता है, तीसरे चौथे और पांचवे समय में आत्मप्रदेश औदारिक शरीर के व्यापार-रहित और उस शरीर से बाहर होने से उस शरीर की सहायता के बिना अकेला कार्माण काययोग होता है।' वाचकवर्य श्री
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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