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________________ योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश तरह त्रिलोकीनाथ श्री ऋषभदेव स्वामी के सामने एकाग्रचित्त हो कर चिरकाल तक भरत महाराज ने उनकी उपासना की। दीक्षा लेने के बाद लाख पूर्व काल व्यतीत होने पर प्रभु ने दस हजार साधुओं के साथ अष्टापद-पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। उस समय इन्द्र आदि देवताओं ने प्रभु का निर्वाण-महोत्सव किया। महाशोकमग्न भरत को इन्द्रमहाराज ने आश्वासन दे कर समझाया। बाद में अष्टापद-पर्वत पर भरत महाराज ने दूसरे अष्टापद के समान निषध नाम का रत्नजटित प्रासादमय-मंदिर बनवाया। उसमें भरत चक्रवर्ती ने श्री ऋषभदेव भगवान् के शरीर, वर्ण और संस्थान की आकृति से सुशोभित रत्नपापाणमय प्रतिमा की स्थापना की। उसके बाद उन्होंने निन्यानवे भ्रातृ-मुनिवरों के भी रत्नपाषाणमय अनुपम स्तूप बनवाये । फिर अपनी राजधानी में आ कर प्रजा का पालन करने के लिये कटिबद्ध होकर राज्य करने लगे। भरतेश भोगावली कर्म के फलस्वरूप उदयप्राप्त विविध भोगो का इन्द्र के समान सदा उपभोग करते थे। एक दिन वस्त्र, आभूषण आदि पहन कर सुसज्जित होने के लिए भरत चक्रवर्ती अपने शीशमहल में पहुंचे । उस समय वे अन्तःपुर की अंगनाओं के बीच में ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे तारों के बीच में चन्द्रमा सुशोभित होता है । शीशमहल में जब भरत नरेश शीशे के सामने खड़े होकर अपना चेहरा व अंग देखने लगे तो सारे अंगों में पहने हुए रत्नजटित आभूषण का प्रतिबिम्ब उसमें पड़ रहा था। अचा. नक उनके हाथ की एक उंगली में से अंगूठी गिर पड़ी। उसके गिरने से निस्तेज चन्द्रकला-सी शोभारहित अंगलि विखाई देने लगी। उनके मन में मंथन जागा । जब एक अंगूठी के निकाल देने से अंगुलि की शोभा कम हो गई है तो और आभूषणों के उतार देने से पता नहीं क्या होगा ? यों सोच कर उन्होंने अपना प्रतिबिम्ब देखा तो पत्तों से रहित वक्ष के समान अपना शरीर शोभारहित जान पड़ा। भरन चिन्तन की गहराई में डूब गए, कि 'क्या इस शरीर की शोभा आभूषणों से है ? अतः इस शरीर को गहनों से सजाने की अपेक्षा अपनी आत्मा को ही ज्ञानादि गुणरूपी और आभूषणों से क्यों न सजा ल् ! वे आभपण स्थायी होंगे, उनकी चमक कभी फीकी न होगी। विष्ठा आदि मलों से भरे हुए इम बाह्यस्रोत वाले शरीर को सजाने से क्या लाभ ? यह नो अन्दर से खोखली दीवार पर पलस्तर करके उसकी शोभा को बढाने जैसा होगा । जैसे उत्पथ (ऊपर) भूमि में हुई वर्षा व्यर्थ ही जल को बिगाड़ती है वैसे ही कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों से गारित यह शरीर भी सुन्दर पदार्थों को दूषित ही करता है । इसलिए परिणाम में दुःखद विषयसुखसाधनों की आसक्ति का त्याग करके मोक्षफल देने वाले तप-संयम का सेवन करने से ही यह गरीर सार्थक हो सकता है। इसी प्रकार इससे उत्तम फल प्राप्त किया जा सकता है।' इस प्रकार वैराग्यग्स से सगबोर हो कर भरत ने अनित्यभावना पर अनुप्रेक्षण किया। इस प्रकार के शुक्लध्यान के योग से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। यह है योग का अद्भुत सामर्थ्य ! उसी समय भक्तिमान इन्द्र ने उन्हें रजोहरण आदि मुनिवेश अर्पण किया, बाद मे वंदन किया और भरत के स्थान पर उनके पुत्र आदिन्ययणा को राजगद्दी पर बिठाया । तब से ले कर आज तक के राजाओं का सूर्यवंश चल रहा है। ___यहाँ पर शंका पैदा होती है कि 'भरत चक्रवती ने पूर्वजन्म में मुनिदीक्षा ले कर योग का अनुभव किया था और उस योगसमृद्धि के बल से अशुभ कर्म नष्ट करने में तथा कर्मक्लेश को मिटाने में योग के प्रभाव से उन्हें अधिक आयास नहीं करना पड़ा। इस दृष्टि से योग का माहात्म्य बताने हेतु
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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