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________________ बाहुबलिमुनि को केवलज्ञान और मरतेश द्वारा ऋषभदेवस्तुति क्या वास्ता ? वृक्ष पर बेलें चढ़ सकती हैं, मेरे शरीर पर नहीं। वैसे ही हाथी मेरे शरीर से कैसे सम्पर्क कर सकता है ? समुद्र कदाचित् अपनी मर्यादा छोड़ दे, पर्वत चलायमान हो जाय, फिर भी भगवान् की शिष्या साध्वी कभी असत्य नहीं बोल सकतीं। अरे हां ! मैंने जान लिया, मैं तो इस मानरूपी हाथी पर चढ़ा हूं और इमी ने मेरे केवलज्ञानरूपी ज्ञान-फल वाले विनयवृक्ष का नाश किया है। मेरे पूर्व-दीक्षित छोटे भाइयो को मैं कैसे वंदन करूं? यही विकार मुझे अभिमान के हाथी पर चढ़ाए हए थे। धिक्कार है, ऐसे विचारों को। वे चाहे मुझसे उम्र में छोटे हों, मगर ज्ञान, दर्शन और चारित्र में तो वे मेरे में बड़ हैं, मेरे से पहले दीक्षित हैं । मेरा यह दुष्कृत (पापमय विचार) मिथ्या हो । अभी जा कर उन छोटे भाइयों को और उनके शिष्यों तक को परमाणु-समान बन कर मैं वदन करूं;" यों विचार करते हुए ज्यों ही बाहुबलि मुनि ने भगवान् के पास जाने के लिए कदम उठाया ; त्योंही उनको निर्वाण-भवन कद्वार के समान केवलज्ञान प्राप्त हुआ। केवलज्ञान-लक्ष्मी से समस्त को वे हस्तामलकवत देखने लगे। और भगवान के पास जाकर केवलज्ञानियो की पपदा म जा बैठे। इधर चौदह महानों, चौसट. हजार अन्तःपुर की स्त्रियों और नौ निधानों से सम्पन्न होने पर भी भरत चक्रवती साम्राज्य-सम्पत्ति का उपयोग धर्म, अर्थ और काम का अविरुद्ध रूप से यथाममय सेवन करते हुए निर्लिप्त भाव में करते थे । एक बार विहार करते हुए प्रभु अप्टापद पर्वत पर पधारे । प्रभु के चरणों में वन्दन करने की उत्कंठा से भरत चक्रवर्ती वहां पहुँचे । देवों और दानवों के द्वारा पूजनीय विश्वपति भगवान् ऋषभदेव समवगरण में बैठ थे। भरतेश ने उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और नमस्कार करके स्तुति करने लगे . 'प्रभो ! आप साक्षात् विश्वास की मूर्ति हैं। पूजीभूत सदाचार हैं ; समग्र जगत् के लिए एकान्त प्रमादरूप है । प्रत्यक्षज्ञान के पुजरूप हैं । पुण्य के समूह-स्वरूप है । एक ही स्थान पर एकत्रीभूत देहधारी समस्त लोक के सर्वस्व हैं । संयमस्वरूप हैं। अकारण विश्वोपकारी है। जंगम शील के समान हैं । देहधारी होते हुए भी विदेह हैं। क्षमावान हैं, योग के रहस्य-समान हैं । जगत् के एकत्र पूजीभूत वीर्य हैं । सिद्धि के सफल उपायभूत हैं। आप सर्वतोभद्र हैं । आप सर्वमंगलरूप हैं। मूर्तिमान मध्यस्थ हैं । एकत्रित तप. प्रशम सदज्ञान. योग आदि रूप हैं। साक्षात विनय-रूप हैं। असाधारण सिद्धि के समान हैं । सकल शास्त्र-सम्पत्तियों के प्रति व्यापक हृदय-समान हैं। 'नमः स्वस्ति, स्वधा, स्वाहा, वषद' आदि मन्त्रों के अभिन्न अर्थ-समान हैं। विशुद्ध धर्ममूर्ति हैं, निर्माण के अतिशय-समान है। पिंडीभूत समग्र तप हैं । समग्र फल-स्वरूप हैं । समस्त शाश्वतगुण-समूह हैं । गुणोत्कर्ष-स्वरूप मोक्ष-लक्ष्मी के निर्विघ्न उपाय हैं । प्रभावना के अद्वितीय स्थान हैं। मोक्ष के प्रतिबिम्ब स्वरूप हैं। विद्वानों के मानो कुलगृह हैं । समस्त आशीर्वादों के फलरूप हैं। आर्यों के श्रेष्ठ चरित्र का दर्शन करने के लिये श्रेष्ठ दर्पण के समान हैं । जगत के द्रष्टा हैं । कूटस्थ प्रशमरूप हैं। दुःखो के लिए शान्ति के द्वार के समान हैं। जीतेजागते ब्रह्मचर्य हैं । उज्ज्वल पुण्य से उपार्जित जीवलोक के अपूर्व जीवित हैं। मृत्युरूपी सिंह के मुख से खींच कर जगत् के जीवों के बचाने के लिए मानो लम्बे हाथ किए हुए कृपालु हैं। ज्ञेय समुद्र में से ज्ञानरूपी मेरुपर्वत को मंथनदंड बना कर मंथनदण्ड से मंथन करके निकाले हुए साक्षात् अमृत हैं । तथा जीवों की अमरणता के कारण-स्वरूप हैं । सारे विश्व को अभयदान देने वाले हैं। तीन लोक को आश्वासन देने वाले हैं । हे परमेश्वर | मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूं। मुझ पर प्रसन्न हों । इस
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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