SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश गये । अचानक यह परिवर्तन देख कर "बहुत ही श्रेष्ठ किया, बहुत ही सुन्दर किया", यो प्रशंसा करते हुए देवों ने हपं से जयध्वनि की और बाहुबलि पर पुष्पवृष्टि की। मनि बन कर बाहुबलि ने मन मे विचार किया-'भगवान के पास जा कर मुझरो पहले मुनि बने हुए अपने रत्नाधिक विन्तु लघुवयस्क भाइयों को मैं बड़ा भाई तीफर कैसे वंदना करू? अच्छा तो यही होगा कि जब मुझं केवलज्ञान हो जायेगा, तभी सीधा भगवान की धर्मसभा में जा कर केवलज्ञानियों की पर्पदा में बैठ जाऊंगा । न किसी को वन्दना करनी पड़ेगी और न कुछ और।' यों सोच कर अपने कृत त्याग के अभियान में स्वसतुष्ट होकर बाहुबलि मुनि वही कायोत्सर्गप्रतिमा धारण कर मौनसहित ध्यान में स्थिर खड़े हो गये । बाहुबलि की ऐसी स्थिति देख कर अपने अनुचित आचरण से भरत को पश्चात्ताप हुआ। शर्म से वह मानो पृथ्वी मे गड़ा जा रहा था। उसने शान्तग्स की मुनि मुनि बने हुए अपने बन्धु को नमस्कार किया। भरत की आंखों से पश्चात्ताप के गर्म अधविन्दु टपक पड़े । मानो रहा-सहा क्रोध भी आंसुओं के रूप में बाहर निकल रहा था । भरतनरंश जिस समय बाहुबलि के चरणों में झुक रहे थे, उस समय बाहुबलि के पंगें के नखरूपी दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ने से भरत के मन में उठ हुए सेवा, भक्ति, पश्चात्ताप आदि अनेक भावो के विविध रूप दिम्द्राई दे रहे थे । भरतनरेश बाबलि के मामने अपने अपगधरूप रोग की ओपधि क ममान आत्मनिन्दा और बाहुबलि मुनि की गुणस्तुति करने लगा-'मुनिवर, धन्य है आपको ! आपने मुझ पर अनुकम्पा करके तिनक की तरह राज्यत्याग कर दिया। ' मैं वास्तव में अधम, पापी, अमापी आर मिथ्या-अकागेहूं; जिससे मैने आपको दुखित किया । जो अपनी शक्ति को नही पहिचानते, अन्यायमार्ग म प्रवृत्त होते है और लोभ के वशीभूत हो जाते है, उन सब में मैं अगुआ हूँ। राज्य वास्तव में संमारवृक्ष को बढ़ाने वाला बीज है । इस बात को जो नही ममझने, वे अधन्य हैं। राज्य को इस तरह का जानता हुआ भी मै उमे नहीं छोड़ मका, इस कारण मैं अधम में भी अधम हूं। सच्चा पुत्र वहीं कहलाता है, जो पिताजी के मार्ग पर चले। मैं भी आपकी तरह भगवान ऋषभदेव का मन्चा पुत्र बन ऐमी अभिलापा है। यो पश्चात्तापरूपी पानी में विपादरूपी कीचड़ को माफ करके भरत महाराज ने बाहुबलि के पुत्र गोमयशा को उसकी राजगद्दी पर बिठा कर उसका राज्याभिषेक किया। उम समय से ले कर आज तक सोमवंग चला आ रहा है. जिसकी मैकड़ों शाखाएँ आज भी विद्यमान है; जो अनेक महापुरुपो को जन्म देने वाला हुआ है। इस प्रकार भरतेण बाहुबली मुनि को नमस्कार घर परिवार सहित राज्यलक्ष्मी के ममान अपनी अयोध्यानगरी में आये । बाहुबलि मुनि को दुष्कर तप करते एवं पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों को नष्ट करते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया। भc ऋषभदेव को बाहुबलि की अभिमानजनक स्थिति ज्ञात हुई। उन्होंने ब्राह्मी और मुन्दरी को बाहुबलि के पास जा कर अभिमानमुक्त होने की प्रेरणा देने की आज्ञा दी। अतः भगवान् की आज्ञा में वे दोनों महामाध्वियां बाहुबलिमुनि के पास आ कर कहने लगीं-' हे महासत्व । स्वर्ण और पापाण में समचित्त ! मंगन्यागी भ्राता मुनिवर ! हाथी के कन्धं मे नीचे उतरो; हाथी पर चढ़े रहना उचित नहीं है। हममे आपको केवलज्ञान कैसे प्राप्त होगा? नीचे लिडियो की आग प्रज्वलित हो नी वृक्ष के नव पल्लव नष्ट होने में बच नहीं सकने ! भ्रातामुनिवर ! यदि आप संसार-समुद्र से तरना चाहते है तो आप स्वयं ही विचार करें और और लोहे की नौका के समान इस हाथी पर से नीचे उतरें।" बाहुबलि मुनि विचार करने लगे-"मैं कौन-से हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। मेरा हाथी के साथ
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy