SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५२ योगशास्त्र : पंचम प्रकाश को जेष्यति योयुद्ध ? इति पृच्छत्यवस्थितः । जयः पूर्वस्य पूर्ण स्याद् रिक्त स्यावितरस्य तु ॥२२५।। अर्थ-इन दोनों के युद्ध में किसकी विजय होगी? इस प्रकार का प्रश्न करने पर यदि स्वाभाविक रूप से पूरक हो रहा हो अर्थात् श्वांस भीतर की ओर खिंच रहा हो, तो जिसका नाम पहले लिया गया है उसको विजय होती है और यदि नाड़ी रिक्त हो रही हो, अर्थात् वायु बाहर निकल रहा हो तो दूसरे को विजय होती है।' रिक्त और पूर्ण नाड़ी का लक्षण कहते हैं - यत् त्यजेत् संचरन् वायुस्तद्रिक्तमभिधीयते । संक्रमेद्यन तु स्थाने तत्पूर्ण कथितं बुधैः ।।२२६॥ अर्थ-चलते हुए वायु का बाहर निकालना 'रिक्त' कहलाता है और नासिका के स्थान में पवन अंदर प्रवेश करता हो तो, उसे पंडितों ने 'पूर्ण' कहा है। अब दूसरे प्रकार से कालज्ञान कहते हैं प्रष्टाऽदो नाम चेज्ज्ञातुः गृह्णात्यन्वातुरस्य । स्यादिष्टस्य तदा सिद्धिः विपर्यासे विपर्ययः ॥२२७॥ अर्थ-प्रश्न करते समय पहले जानने वाले का और बाद में रोगी का नाम लिया जाए तो इष्टसिद्धि होती है, इसके विपरीत यदि पहले रोगी का और फिर जानने वाले का नाम लिया जाए तो परिणाम विपरीत होता है। जैसे कि 'वैद्यराज ! यह रोगी स्वस्थ होजायगा? तो रोगी स्वस्थ हो जाएगा।' और 'रोगी अच्छा हो जाएगा या नहीं, वैद्यराज ?' इस प्रकार विपरोत नाम बोला जाए तो विपरीत फल जानना अर्थात् रोगी स्वस्थ नहीं होगा। तथा वामबाहुस्थिते दूसे, समनामाक्षरो जयेत् । बक्षिणबाहगेत्याजो, विषमाक्षरनामकः ॥२२॥ अर्थ-युद्ध में किसकी विजय होगी? इस प्रकार प्रश्न करने वाला दूत यदि बाई मोर खड़ा हो और युद्ध करने वाले का नाम दो, चार, छह आदि सम अक्षर का हो तो उसको विनय होगी और प्रश्नकर्ता वाहिनी ओर खड़ा हो तथा योवा का नाम विषम अमरों वाला हो तो युद्ध में उसकी विनय होती है । तथा भूतादिभिर्ग होतानां, दष्टानां वा मुजंगमैः । विधिः पूर्वोक्त एवासी, विज्ञयः खलु मान्त्रिकः ।।२२९।। अर्थ-भूत आदि से माविष्ट हों अथवा सर्प आदि से उस लिए गये हों, यदि उनके लिए भी मन्त्रवेत्तानों से प्रश्न करते समय पूर्वोक्त विधि ही समझनी चाहिए। पूर्णा संजायते वामा, विशता बरुणेन चेत् । कार्यान्यारम्यमाणानि, तवा सिध्यन्त्यसंशयम् ॥२३०॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy