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________________ भरत द्वारा बहुबलि को अधीन होने का संदेश - बचा है, जो आपकी आज्ञाधीनता स्वीकार नहीं करता । और जब तक सभी राजा आपका आज्ञाधीनता स्वीकार न कर लें तब तक चक्रवर्तित्व के लिए, आपकी दिग्विजय अधूरी है ।' भरत ने इसके उत्तर में कहा 'हाँ ! मैं जानता हूं कि लोकोत्तर-पराक्रमी महाबाहु महाबलशाली मेरे लघुबन्धु बाहुबलि को जीतना अभी बाकी है । मेरी स्थिति इस समय उस व्यक्ति की-सी बनी हुई है, जिसके एक ओर गरुड़ हो और दूसरी ओर सर्वो का [ड। मैं जानता हूं कि बाहुबलि सिंह के समान अकेला ही हजारों व्यक्तियों को परास्त कर सकता है; क्योंकि जैसा पराक्रम अकेला सिंह दिखलाता है, वैसा पराकम हजारों हिरण मिल कर भी नहीं दिखला सकते । एकाकी अजेय बाहुबलि को जीतने में प्रतिमल्ल या देव, दानव या मानव समर्थ नहीं है । मेरे सामने बहुत बड़ा धर्मसंकट पैदा हो गया है। एक ओर में चक्रवर्ती बनना चाहता हूं, लेकिन मेरी आयुध-शाला में चक्ररत्न प्रवेश नहीं कर रहा है, दूसरी ओर बाहुबलि किसी की अज्ञाधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। क्या यह बाहुबली किसी भी तरह से आज्ञा मानन को तैयार होगा ? क्या सिंह अपनी पीठ पर पलाण का लादना सहन करता है ?" भरत ऐसे विचारसागर में गोते लगा रहा था, तभी उसके सेनापति ने कहा - 'स्वामिन्! आपके पराक्रम के मामन तीन जगत् भी तिनके के समान है ।" भरत ने अपने सौतेले छोटे भाई बाहुबली की राजधानी तक्षशिला में दूत भेज कर संदेश कहलवाया । चतुर दूत ने ऊँचे सिहासन पर बैठे बाहुबलि को प्रणाम किया और भरतेश का संदेश युक्तिपूर्वक कह सुनाया- 'राजन् ! 'आप वास्तव में एक प्रशंसनीय व्यक्ति हैं, जिनके बड़े भाई जगत् को जीतने वाले, भारत के छह खण्ड के स्वामी और लोकोत्तर पराक्रमशाली है । आपके बड़े भाई के चक्रवतित्व के राज्याभिषेक उत्सव में मंगलमय भेट ले कर और आज्ञाधीन बन कर कौन राजा नहीं आता ? अर्थात प्रत्येक राजा आये हैं ! सूर्योदय से जैसे कमलवन सुशोभायमान होता है, वैसे ही भरत का उदय आपकी ही शोभा के लिये है । परन्तु हमें आश्चर्य होता है कि आप उनके राज्याभिषेक में क्यों नहीं पधारे ? 'कुमार ! आपके नहीं आने का कारण जानने के उद्देश्य से ही नीतिज्ञ राजा ने मुझे आपकी सेवा में पहुंचने की आज्ञा दी है; और इसी हेतु से मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ । हो सकता है कि आप स्वाभाविक रूप से नही पधारे हों; परन्तु इतने बड़े उत्सव में एक लघुबन्धु कं नाते आपके न पधारने से कितने ही लोग इसे आपकी अवनीतता समझते हैं। क्योंकि नीच पुरुष सदा छिद्र ढूंढा करते हैं । हम चाहते हैं कि ऐसे नीच लोगों को बोलने की कतई गुंजाइश न रहे। इस बात पर आपको भलीभांति ध्यान देना चाहिये और पहले से ही इसका बचाव करके चलना चाहिए । अतः आपसे हमारा नम्र निवेदन है कि आपको अपने बड़े भैया की सेवा में पधारना चाहिए। बड़ा भाई महाराजा होता है, उसकी उपासना करने में कौन-सी लज्जा की बात है ? आप कदाचित यह सोच कर नहीं पधारें कि मैं तो उनके बराबरी का भाई हूँ; कैसे जाऊँ ? तो इससे आपकी धृष्टता ही प्रगट होगी । आज्ञापालक राजा नाते-रिश्तेदारी का खयाल नहीं रखते । लोहचुम्बक के निकट रखते ही जैसे लोहा खिंचा चला आता है, वैसे ही भरतनरेश के तेज और पराक्रम से देव, दानव और मनुष्य सभी खिंचे चले आते हैं । वर्तमान में तो सभी राजा एकमात्र भरत का ही अनुसरण करते हैं । इन्द्र- महाराज भी उन्हें आषा आसन दे कर उनसे मित्रता बांधे हुए हैं। फिर समझ में नहीं आता कि आप उनकी सेवा में जाने से क्यों पीछे हट रहे हैं ? शायद आप अपने आपको अधिक वीर समझ कर राजा की अवज्ञा कर रहे हैं, तो यह आपकी बड़ी भ्रान्ति होगी। उनकी सेना के सामने आपकी मुट्ठीभर सेना ऐसी लगती है, जैसे समुद्र के सामने एक छोटा-सा नाला । और उनके पास ऐरावण जैसे चौरासी लाख हाथी हैं, जिन्हें जंगम पर्वत के समान चलायमान करने में कौन समर्थ है ? उतनी ही संख्या में घोड़े और रथ हैं, जिनका वेग प्रलय 1 ३६
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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