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________________ ४० योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश कालीन समुद्र के तूफान के समान है। उनके वेग को रोकने में भला कौन समर्थ है ? फिर उस चक्रवर्ती के अधीन ६६ करोड़ गांव हैं और सिंह के समान ८६ कोटि पैदल सेना है; जिनसे वह चाहे जिसको व्यथित कर सकता है तथा उनके पास हाथ में दण्डरत्नधारक यमराज-सा सुषेण नामक एक सेनापति भी है; जि के दण्ड को देव और असुर भी सहन नहीं कर सकते । साथ ही अमोघ चक्ररत्न उस भरत चक्रवर्ती के आगे-आगे ऐसे चलता है; मानों सूर्य का मण्डल चल रहा हो । सूर्य के सामने अन्धकारसमूह टिक नहीं सकता, वैसे ही तीन लोक में कोई भी उसके तेज के सामने कैसे टिक सकता है ? अत: हे बाहुबलि ! भरत महाराजा बल, वीर्य और तेज में समस्त राजाओं से बढ़कर हैं । इसलिए अगर आप अपने राज्य और जीवन की सुरक्षा चाहते हों तो आपको उनका आश्रय ग्रहण करना चाहिए।" अपनी बाहुओ से जगत के बल को परास्त करने वाले बाहुबलि ने अपनी भ्र कुटि, चढ़ा कर समुद्र की तरह गर्जती हुई गम्भीर वाणी में कहा 'दूत ! तुमने ऐसे वचन कहे हैं, जो लोभ से लिप्त और क्षुब्ध करने वाले है। दूत तो सदा स्वामी के वचन को यथार्थ संदेश के रूप में पहुंचाने वाले होते हैं । ऐ दूत ! सुरों, असुरों और नरेन्द्रों के पूज्य, उत्तम-पराक्रमी पिताजी ही मेरे लिए पूजनीय और प्रशसनीय नहीं, अपितु भरत भी मेरे लिए पूजनीय व प्रशंसनीय है, यह बात ही तुमने नई सुनाई । कर देने वाले राजा चाहे उनसे दूर रहें, परन्तु जिसका बलवान भाई बाहुबलि है, वह क्षेत्र से दूर रहते हुए भी अपने भाई के निकट ही है। सूर्य और कमलवन के समान हम दोनों की परस्पर गाढ़ प्रीति है । अपने भाई का मेरे हृदय में स्थान है । फिर वहाँ जाने से क्या प्रयोजन है ? हमारी प्रीति तो जन्म से ही स्वाभाविक है । हम सहजभाव से भैया के पाम नहीं पहुँच, यह बात सत्य है। परन्तु इसे भैया भरत के प्रति मेरी कुटिलता क्यों समझी जाय ? विचारपूर्वक कार्य करने वाले सज्जन दुर्जनों के वचनों से बहकते नहीं । भगवान् ऋषभदेव स्वामी ही हम दोनों के स्वामी हैं। वे स्वामी ही एकमात्र विजयी हैं, तो फिर मुझे दूसरे स्वामी की क्या आवश्यकता है ? वे मुझे अपना भाई समझते हैं तो भाई को भाई से डर क्यों ? आज्ञा करने वाले तो स्वामी हैं; वे आज्ञा दें चाहं न दें। रिश्ते-नातेदारी का सम्बन्ध हो, इसमें क्या विशेपता है ? क्या हीरा हीरे को नही काटता? यदि भरत देव, दानव और मानव के द्वारा सेव्य हो और उनके प्रति उनकी विशेष प्रीति हो, इससे मुझे क्या लेना-देना ? सीधे मार्ग पर चलने वाले रथ को कोई हानि नहीं होती, मगर उत्पथ पर चलने वाला अच्छा से अच्छा रथ किसी ठूठ या पेड़ से टकरा कर चकनाचूर हो जाता है। इन्द्र पिताजी के भक्त है, वे पिताजी के लिहाज से कदाचित् भरत को अपने आधे आसन पर बैठने का अधिकार दे दें। इतने मात्र में उनमें अहंकार आ जाना ठीक नहीं है। तुमने कहा कि समुद्र के समान उसकी सेना के सामने दूसरे राजाओं की सेना आटे में नमक के जितनी है, परन्तु मैं उससे भी बढ़कर दुःसह वड़वानल के समान हूँ । सूर्य के तेज में दूसरे तेज विलीन हो जाते हैं, वैसे ही मेरी सेना में भरत की पैदल, ग्थ, घोड़े, हाथी, सेनापति और भरत भी प्रलीन हो जायेगा । अतः हे दूत ! तुम जाओ और अपने स्वामी से कहो कि यदि वह अपने राज्य और जीवन को लड़ाई से सहीसलामत रखना चाहता है, तो खुशी से लड़ने आए । मुझे उसका राज्य लेने की ख्वाहिश नहीं है । पिताजी के दिये हुए राज्य से ही मुस सन्तोष है।" दूत ने वहां से वापिस आ कर बाहुबलि का सारा वृत्तान्त भरतनरेश को सुनाया । अतः भरत ने भी बाहुबलि के साथ युद्ध करने की अभिलाषा से सेना के साथ कूच किया। चातुर्मास में जैसे बादलों से आकाश ढक जाता है, वैसे ही पराक्रमी बाहुबलि भी अपनी सेना के कूच करने से उड़ती हुई धूलि से पृथ्वीतल को आच्छादित करता हुआ भरत से युद्ध करने के लिए मा पहुंचा। युद्ध के मैदान में युद्ध के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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