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________________ ३८ योगशास्त्र: प्रथय प्रकाश करेंगे ?" भगवान् ऋषभदेव को तो केवलज्ञानरूपी दर्पण में सारा चराचर जगत् स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा था, उनसे यह बात कब छिपी रह सकती थी! अतः कृपानाथ श्रीआदीश्वर भगवान ने पुत्रों को सम्बोधित करते हुए कहा- 'पुत्रो ! मैं तुम्हारे लिए अद्भुत अध्यात्मराज्यलक्ष्मी लाया हूं ! भौतिक राज्यलक्ष्मी तो चंचल है और अहंकार पैदा करने वाली है। अंत में अपने अनर्थकर स्वभाव के कारण वह राज्यकर्ता को नरक में ले जाती है। यह जन्म-मरण का चक्र बढ़ाने वाली है। भौतिक-राज्यलक्ष्मी पा कर भी कदाचित् स्वर्ग-सुख मिल जाय तो भी उस सुख की तृष्णा बढती रहेगी और जैसे अगारदाहक की प्याम शान्त न हुई, वैसे अगले जन्म में भी भोगलिप्सा शान्त नहीं होगी; स्वर्ग के सुख से यदि तप्णा अगले भव में शान्त नहीं हुई तो वह तृष्णा अंगारदाहक के समान मनुष्य के भोग से कैसे शान्त हो सकती है? अंगारदाहक का दृष्टान्त अगारदाहक नाम का एक मूर्ख तालाब से पानी की मशक भर कर कोयले बनाने के लिए निर्जन जंगल में गया। अग्नि का ताप और तपती दुपहरी के सूर्य की चिलचिलाती धूप से उसकी प्यास दुगुनी हो उठी। इस कारण वहां मशक की चेली में जितना पानी था, उतना पी गया। फिर भी उसकी ग्यास शान्त नहीं हुई तब वह सो गया। उसे एक स्वप्न दिखाई दिया, जिसमें उमने देखा कि वह घर गया और घर में रखे हुए घड़ों, मटकों और पानी के भरे बर्तनों का सारा का सारा पानी पी गया। जैसे तेल से आग शान्त नहीं होती, वैसे ही इतना पानी पी जाने पर भी उसकी प्यास कम न हुई। तब उसने बावडी, कुए, तालाब आदि का पानी पीकर उन्हें पालो कर दिया। फिर भी वह वह तप्त न हुआ। अतः वह नदी पर गया; समुद्र पर गया, उमका पानी भी पी गया; फिर भी नारकीय जीव की वेदना की तरह उसकी प्यास कम नहीं हुई । बाद में वह जिम जलाशय को देखता, उसी का पानी पी कर उसे खाली कर देता। फिर वह मारवाड़ के कुए का पानी पीने के लिए पहुंचा। उसने कुए से पानी निकालने के लिए रस्सी के माथ घास का एक पूला बाधा और उसे कुए में उतारा। परेशान मनुष्य क्या नही करता ?' मारवाड़ के कुए का पानी गहरा था और गहराई से बहुत नीचे से पानी खींचने के कारण बहुत-सा पानी नो ऊपर आते-आते निचुड़ जाता था। फिर भी वह पूले के तिनकों पर लगे जलबिन्दुओं को निचोड़ कर पीने लगा। जिसकी प्यास ममुद्र के जल से भी शान्त नही हुई; वह भला पूल के पानी से कैसे शान्त होती ? मतलब यह है कि उसकी प्यास किसी भी तरह से नहीं बुझी । इमी तरह जिसे स्वर्ग के सुख से शान्ति नही हुई, उसकी तृष्णा राज्यलक्ष्मी के ले लेने से कमे शाम्न हो जायगी? अतः वत्सो! आनंदग्स देने वाला और निर्वाणप्राप्ति का कारणहप संयमसाम्राज्य प्राप्त करना ही तुम जैसे विवेकियों के लिए उचित है।' इस प्रकार प्रभु का वैराग्यमय उपदेश सुन कर उन ६८ भाइयों को भी उसी समय वैराग्य हो जाने से उन्होंने भगवान् के पास दीक्षा धारण की। उधर दूत उन 5 भाइयों के धर्य, सत्य और वैगग्यवृद्धि की मन ही मन प्रशंसा करता हुआ भरतनरेश के पास पहुंचा । उनसे ६८ भाइयों की सारी बाते निवेदन की। उसे सुन कर भरनना ने उन ६८ भाइयों का गज्य अपने अधिकार में कर लिया। मच है, लाभ (धनप्राप्ति) मे लोभ बढना जाता है। गजनीति में सदा से ही प्रायः ऐसा होता आया है। सेनापति ने व्याकुल हो कर भरतचक्रवर्ती से सविनय निवेदन किया- "चक्रीण ! अभी तक आप की आयुधशाला में चक्ररत्न प्रवेश नहीं कर रहा है। इसलिये मालूम होता है कि कोई न कोई ऐमा राजा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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