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________________ भरतक्षेत्र के पर्वत, क्षेत्र, नदियों तथा महाविदेहक्षेत्र का वर्णन ४६१ भी दक्षिणप्रवाहिनी नदियों के समान जान लेना। भरतक्षेत्र की कुल लम्बाई ५२६१० योजन है। उसके बाद महाविदेह तक क्रमशः लम्बाई में दुगुने-दुगुने पर्वत और क्षेत्र हैं, और उत्तर के प्रत्येक क्षेत्र और पर्वत भी दक्षिण के समान है। महाविदेह में निपधपर्वन के उनर में और मेरु के दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में विद्य प्रभ और मोमम नामक निषध के अन्तर्गत गजदंताकार पर्दनों से घिरे हुए, शीतोदा नदी से विभक्त पास-पास पांच पांच कुड और दस कांचनपर्वतों से सुशोभित है। शीनोदा नदी के पूर्व और पश्चिम किनारे पर एक हजार योज। ऊपर उतना ही नीच विस्तार वाले और इसमे आधा ऊपर में विस्तार वाले विचित्रकूट और चित्रकूट में शोभित देवकुरु ११८४२ योजन प्रमाण वाला है। मेरुपर्वत के उत्तर और नीलपवंत के दक्षिण मे गन्धमादन और माल्यावंत है; जिनकी आकृति हाथी के समान है । मेरु और नीलपर्वत के बीच में स्थित शीतानदी से विभक्त हो कर बने हुए पास में पाच कुण्ड हैं। सो कांचनपर्वतों से युक्त शीतानदी के दोनों किनारों पर विचित्रकूट और चित्रकूट नाम वाले सुवर्ण यमकपर्वतों से शोभित उत्तरकुरु है। देवकुरु और उत्तरकुरु से पूर्व की ओर पूर्व-महाविदेह और पश्चिम की ओर पश्चिममहाविदेह है । पूर्वविदह में चक्रवर्ती के लिए योग्य नदियों और पर्वतों से विभाजित परस्पर एक दूसरे में प्रवेश न कर सके। इस प्रकार के सोलह विजय है। उसी प्रकार पश्चिमविदह मे भी सोलह विजय है। भरतक्षेत्र के मध्य भाग में पूर्व और पश्चिम दोनो तरफ समुद्र को स्पर्श करता हुमा, भरत के दक्षिण और उत्तर दो विभाग करने वाला, तमिस्रा ओर खंडप्रपाता नाम की दो गुफाओं स शोभित वैताद्यपर्वत है । यह सवा छह पोजन जमीन के अन्दर है, पचास योजन विस्तृत है और पच्चीस योजन ऊंचा है । इस पर्वत के दक्षिण और उत्तर की निकटवर्ती भूमि से दस योजन ऊंची एवं दस योजन विस्तृत विद्याधरों की श्रेणियां है। जहाँ दक्षिणदिशा में प्रदेशसहित पचास नगर हैं और उत्तरदिशा में साठ नगर है। विधाधर की श्रेणियों से ऊपर दोनो तरफ दस योजन के बाद तिर्यगजभक व्यन्तरदेवो की घोणियां है। उनमें व्यन्तरदेवों के आवास हैं। व्यन्तरत्रेणियों से ऊपर पांच योजन पर नौ कूट है। बताढ्य के समान ऐरावतक्षेत्र में भी समानता जान लेना। जम्बूद्वीप के चारों तरफ कोट के समान वजमय आठ योजन ऊंची जगती है। वह मूल में बारह योजन लम्बी है। बीच में आठ योजन और ऊपर चार भोजन है। उसके ऊपर दो गाऊ ऊंचा जालकटक नाम का विद्याधरों के क्रीड़ा करने का स्थल है। उसके ऊपर के भाग ने पद्मवरवेदिका नाम की देवों की भोगभूमि है । इस जगती के पूर्वादि प्रत्येक दिशा में विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार है । हिमवान और महाहिमवान इन दोनों पर्वतों के बीच में शब्दापाती नाम का वृत्त वैताढय पर्वत है. रूक्मी और शिखरी के बीच में -विकटापाती, महाहिमवान और निषध के बीच में गन्धापाती, नील और रूक्मी के बीच में माल्यवानपर्वत है । ये सभी एक-एक हजार योजन ऊंचे और पाली की आकृति वाले हैं। तथा जम्बूद्वीप के चारों तरफ घिरा हुमा उससे दुगुना अर्थात् दो लाख योजन विस्तार वाला, (मध्य में दस हजार योजन विस्तार वाला) एक हजार योजन गहरा और दोनों ओर पचानवे हजार योजन तथा मध्य में वृद्धि होने के कारण जल का विस्तार सोलह हजार योजन ऊंचा तथा उससे पर रात और दिन में दो गाऊ तक जल घटता-बढ़ता रहने वाला लवण-समुद्र है । इसके मध्य भाग में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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