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________________ व्यन्तरदेवों और ज्योतिष्कदेवों का वर्णन ४९३ पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व, ये व्यन्तरदेव हैं, जो क्रमशः कदंबवृक्ष सुलसवृक्ष, वटवृक्ष, खट्वांग-तापस उपकरण, अशोकवृक्ष, चम्पकवृक्ष, नागवृक्ष, तुम्बस्वृक्ष के चिह्न वाले हैं। ये व्यन्तर तिरछालोक में वास करते हैं, इन व्यन्तरदेवों के नगर भी हैं। इनमें भी दक्षिण और उत्तर दिशा में दो दो इन्द्रों की व्ययस्था है। वे इस प्रकार हैं -पिशाचों के काल और महाकाल, भूतों के सुरूप और प्रतिरूप, यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुप, किंम्परुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय, और गन्धवों के गीतरति और गीतयशा नामक इन्द्र हैं । उसी रत्नप्रभा में प्रथम सौ योजन के नीचे और ऊपर के दस दस योजन को छोड़ कर बीच में अस्सी योजन में अणपन्नी, पणपनी, आदि उतने ही दक्षिण और उत्तर दिशा में व्यवस्थित बने हुए आठ व्यतरनिकायदेव हैं और उनके भी प्रत्येक के दो दो इन्द्र हैं। तथा रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल प्रदेश से ७६० योजन ऊपर ज्योतिष्कदेवों का निम्न प्रदेश है, उसके ऊपर दस योजन में सूर्य है, इससे आगे अस्सी योजन पर चन्द्र है ; उसके ऊपर बीम योजन में तारा और ग्रह हैं । इस तरह कुल ज्यातिलोंक एक सौ दस योजन मोटाई वाला है । ग्यारह सौ इक्कीस योजन जम्बूद्वीप के मेरु को स्पर्श किए बिना और लोक के आखिर से ग्यारह सौ ग्यारह योजन स्पर्श किए बिना सर्वदिशा में मंडलाकार व्यवस्थितरूप ध्रुव को छोड़ कर ज्यातिश्चक्र भ्रमण करता है । कहा है कि-"ग्यारह सौ इक्कीस और ग्यारह मो ग्यारह इस तरह मेरुपर्वत और अलोक इन दोनों के बाहर के भाग में ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है। यहां सब से ऊपर स्वातिनक्षत्र और सबसे नीचे 'भरणिनक्षत्र है, सबके दक्षिण में मूलनक्षत्र और सब के उत्तर में अभीचिनक्षत्र है। इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं, लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं, धातकीखंड में वारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं, कालोदधिसमुद्र में ४२ चन्द्र और ४२ सूर्य हैं, पुष्करवरार्ध में ७२ चन्द्र और ७२ सूर्य हैं। इस तरह मृत्युलोक में कुल १३२ चन्द्र और १३२ सूर्य होते हैं । ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६९७५ से अधिक तारे तथा उसके कोटाकोटिप्रमाण एक एक चन्द्र का परिवार है। चन्द्र का विमान ६ योजन लम्बा चौड़ा है, सूर्य का विमान योजन लम्बा चौड़ा है, आधा योजन ग्रह का विमान है, नक्षत्र का विमान एक कोस का है, तारा का सर्वोत्कृष्ट आयुष्यवाला आधे कोस का विमान है, और सबसे जघन्य आयुष्यवाले का विमान पांच-सी धनुष्य-प्रमाण का होता है । सब विमानों की मोटाई चौड़ाई प ाषी होती है । ये विमान ४५ लाख योजन प्रमाणवाले मनुष्यक्षेत्र में होते हैं । चन्द्र आदि के विमान के आगे सिंह दक्षिण में हाथी, पश्चिम में वृषभ, और उत्तर में अश्व होते हैं। सूर्य और चन्द्र के सोलह हजार आज्ञापालक आभियोगिक देव होते हैं। ग्रह के आठ हजार, नक्षत्र के चार हजार, तारा के दो हजार आभियोगिक परिवार होता है। अपनी देवगति और देवपुण्य होने पर भी चन्द्रादि आभियोग्यकर्म के कारण उसी रूप में उपस्थित होते हैं । मानुषो. तर पर्वत के बाद पचास हजार योजन क्षेत्र-परिधि की वृद्धि से संख्या में बढ़े हुए शुभलेश्या वाले ग्रह, नक्षत्र, तारा के परिवार घंटा की आकृति के समान असंख्यात हैं । वे स्वयंभूरमणसमुद्र से लाख योजन अन्तर वाली श्रेणियों में रहते हैं। मध्यभाग में जम्बदीप और लवणादिसमुद्र सुन्दर सुन्दर नाम वाले, आगे से बागे दुगुनी-दुगुनी परिधि (व्यास-गोलाई) वाले असंख्यात वलयाकार द्वीप और समुद्र हैं, और आखिर में स्वयंभूरमण समुद्र है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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