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________________ ४१२ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश बाधारभूत धनोदधि, धनवान और तनुवात इन तीनों वलयों की पृथ्वी के चारों बोर वलयाकार से अंतिम भाव तक जितनी चौड़ाई होती है, उतनी ही पृथ्वी की ऊंचाई का नाप होता है। पुनः लोक का स्वरूप बताते हैं वेत्रासनसमोऽधस्तात्, मध्यतो मल्लरोनिभः । अग्रे मुरजसंकाशो, लोकः स्यादेवमाकृतिः॥१०॥ अर्थ-यह लोक नीचे के भाग में वेत्रासन के आकार का है यानी नीचे का भाग विस्तृत है और ऊपर का माग क्रमशः संकुचित (सिकुड़ा हुआ) है; मध्यभाग झालर के आकार का है और ऊपर का भाग मृदंग के-से आकार का है। तीनों लोकों को इस प्रकार को माकृति मिलाने से पूरे लोक का आकार बन जाता है। व्याख्या-लोक का अधोभाग वेत्रासन के समान, नीचे का भाग विस्तृत और ऊपर से उत्तरोत्तर क्रमशः संकुचित होता चला जाता है। लोक का मध्यभाग झालर (बाजे) के समान तथा ऊपर का भाग मृदंग के समान -यानी ऊपर और नीचे का भाग सिकुड़ा हुमा और बीच में विस्तृत होता है। इस तरह तीन आकार वाला लोक है। पूज्य उमास्वाति ने प्रशमरति-प्रकरण में कहा है कि-'इस लोक में अधोलोक नीचे मुह किए हुए औंधे रखे हुए सकोरे के आकार का है, तिरछा लोक पाली-सरीखे आकार का है, और ऊध्र्वलोक खड़े किये हुए मृदंग के आकार का है। यहां पर अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक के मध्यभाग में रुचकप्रदेश की अपेक्षा से मेरुपर्वत के समान गोस्तनाकार चार आकाशप्रदेश हैं। नीचे के भाग में उसी के ऊपरिभाग में उसी तरह दूसरे चार रुषकप्रदेश हैं ; इसी तरह आठ रुचकप्रदेश के नीचे उच्च आकाश प्रदेश है। कहा है कि 'तिरछे लोक के समान मध्यभाग में आठ रुचकप्रदेश हैं, इनसे ही दिशा और विदिशा की उत्पत्ति हुई है। उन रुचकप्रदेशों से नीचे और ऊपर नौ-नौसी योजन तक तिरछालोक है। इसकी मोटाई मठारह-सौ योजन-प्रमाण है । तिरछालोक के नीचे नौ-सौ योजन छोड़ने के बाद लोक का अंतिम भाग है। वह सात राज-प्रमाण अधोलोक है. उसमें पूर्वोक्त स्वरूपवाली सात पृथ्विया है। उसमें प्रथम रत्नप्रभा को पृथ्वी में एक लाख अस्सी हजार योजन ऊंचाई अथवा मोटाई है। उसके ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख ७८ हजार योजन के बन्दर भवनपति देवों के भवन-(मकान) हैं। वे भवनपतिदेव क्रमशः असुर, नाग, विद्युत्, सुपर्ण, अग्नि, वायु, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक्कुमार नाम के हैं। वे चूड़ामणि, सर्प, वज, गरुड़, घट, अश्व, वर्धमान, मगर, सिंह और हाथी के चिह्न वाले होते हैं। उन भवनपतिदेवों के दक्षिणदिशा और उत्तरदिशा में व्यवस्थित रूप से दो-दो इन्द्र होते हैं। असुरकुमार देवों के चमरेन्द्र और बलीन्द्र नामक दो इन्द्र होते हैं, नागकुमार देवों के घरणेन्द्र और भूतानंद इन्द्र होते हैं। विद्य त्कुमार देवों के हरि और हरिसह नामक दो इन्द्र होते हैं। सुपर्णकुमार देवों के वेणुदेव और वेणुदालि नामक दो इन्द्र हैं। अग्निकुमार देवों के अग्निशिख और अग्निमाणव नामक इन्द्र हैं । वायुकुमार देवों के इन्द्र वेलंब, और प्रभंजन है। स्तनितकुमार देवों के इन्द्र सुघोष बोर महाघोष है । उदधिकुमार देवों के इन्द्र जलकान्त और जलप्रभ हैं । द्वीपकुमार देवों के इन्द्र पूर्ण और वशिष्ठ है । दिनकुमार देवों के इन्द्र अमित और बमितवाहन हैं। इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन में ऊपर-नीचे के सौ-सौ योजन छोड़ कर, बीच के आठ-सी योजन में आठ प्रकार के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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