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________________ लोक के स्वरूप का विस्तृतवर्णन ४९ " अर्थ-यह लोक तीन जगत् से व्याप्त है । उसे अध्यलोक, मध्यलोक और अबोलोक के नाम से पुकारा जाता है । अधोलोक में सात नरकभूमियां हैं, जो महासमर्थ घनोदधि, धन बात और तनुवात से क्रमशः वेष्टित हैं। व्याख्या-पूर्वोक्त आकृति और स्वरूपवाला लोक अधो, तिर्यक् और ऊर्ध्व तीन लोक से व्याप्त है । अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रग, धूमप्रमा, तमःप्रमा और महातमः प्रभा; ये यथार्थ नाम वाली मात नरकभूमियां हैं । तथा अनादिकाल में प्रसिद्ध निरन्वर्थक नाम वाली हैं। वह इस प्रकार-घर्मा, वंशा, शैला अंजना. रिष्टा, मघा और मायवती । वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक के नीचे उत्तरोत्तर अधिकाधिक चौड़ी हैं। इनमें क्रमण. ३० लाख.:. लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, पांच कम एक लाख और पांच नारकावाम हैं। उनके नीचे और आमपास चारों ओर गोलाकार 'बेष्टित (घिरा हुआ) महाबलगाली घनोदधि जमा हुआ ठोससयन समुद्र) है. फिर धनवात (जमी हुई 'ठोस वायु) है, तदनन्तर है- ननुवात (पतली हवा) । महाबल से: :: 'पृथ्वी को धारण करने में समर्ष' से तात्पर्य है । इसमें प्रत्येक पृथ्वी के नीचे घनोदधि है, जो मध्यभाग में बीस हजार योजन मोटा है, घनवात (महावायु) की मोटाई घनोदधि से मध्यभाग में असंख्यानयोजन है और तनुवात घनवात से 'असंख्यातयोजन स्थल है। उसके बाद असंख्यात योजनसहस्र आकार है। यह बीच की मोटाई का नाप है। उसके बाद क्रमश: दोनों तरफ घटते-घटते आखिरी वलय के सदृश नाप वाला होता है। रत्नप्रभा के घनोदधि वलय की चौड़ाई सिर्फ योजन है, घनवातवलय की चौड़ाई ४॥ योजन और तनुवातवलय की चौड़ाई १॥ योजन है । रत्नप्रभा के वलपमान पर घनोदधि में योजन का तीसरा भाग होता है, धनवात में एक कोस और तनुवात में कोस का तीसरा भाग होता है। इस तरह शर्कराप्रभा में वलयमान समझना । शकंगप्रभा के वलयमान के ऊपर भी इसी प्रकार प्रक्षेप करना (मिलाना)। इसी प्रकार पूर्व-पूर्व समान पर ऊपर बढे अनमार मार पध्वी तक मिलाते हा आगे बढ़ते जाना । कहा भी है-"म्मा के प्रथम वलय की लंबाई कोस का तीसरा भाग है, दूसरे वलय की लंबाई एक गाऊ-कोम और अन्तिम 'वलय की लंबाई कोस का तीमरा हिम्सा ; इत्यादि प्रकार से ध्रुव मे मिलाते जाना। इसी तरह सात पृथ्वी तक मिलाना । प्रक्षेप करने के बाद वलय की चौड़ाई का नार इस प्रकार जानना -"दूसरी वशा नाम की पृथ्वी में प्रथम वलय का विष्कम्भ (चौड़ाई) ६ योजन और एक तिहाई (११) योजन, दूसरे वलय में ४ योजन और नीमरे वलय में १२२ योजन होता है। इस तरह सब मिला कर इकट्ठे करने से वंशा (शर्कराप्रभा) नामक द्वितीय नरकभूमि की सीमा से १२३ योजन के अन्त में अलोक है। शेला (बालुकाप्रभा) नाम की तृतीय नरकभूमि के प्रथम वलय का विष्कम्भक ६ योजन है, दूसरा वलय ५३ योजन है और तीसरा है १३योजन । कुल मिला कर १३ योजन में बालुकाप्रभा की सीमा पूर्ण होती है। इसके आगे अलोक है। चौथी पंकप्रभा (अंजना) नामक नरक पृथ्वी के वलयों में प्रथम का विष्कम ७ योजन, दूसरे का ५. योजन, ओर तीसरे का १ योजन, इस प्रकार कुल १४ योजन के बाद अलोक माता है । धूमप्रभा (रिष्टा) नाम की पंचम नरकभूमि में तीनवलय क्रमशः ७१, ५३, १५ योजन विष्कंभ हैं। उसके बाद यानी १४० योजन के बाद अलोक है । तमःप्रभा (ममा) नामक छठी नरक के तीन वलय हैं, उनमें प्रथम धनोदधिवलय का विस्तार ७१, दूसरे का ५४ और तीसरे का ११५ योजन चौड़ाई है। महातमःप्रभा (माधवती) नामक सप्तमनरकभूमि का प्रथम वलय ८ योजन, दूसरा वलय ६ योजन और तीसरा वलय २ योजन लम्बा चौड़ा है, अर्थात् कुछ १६ योजन के बाद अलोक समझना। पृथ्वी के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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