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________________ भरतचक्रवर्ती का दिग्विजय के लिए प्रस्थान प्रतिबोध देने के लिये शिष्यपरिवार सहित अन्यत्र विहार किया । भरतनरेश भी प्रभु को नमस्कार कर अयोध्या लौट आए । ३३ ऋषभदेव वंशरूपी समुद्र को चन्द्र के समान आह्लादित करने वाले, साक्षात् मूर्तिमान न्याय श्रीभरतनरेश ने पृथ्वी का यथार्थरूप से पालन किया। उनकी रूप-संपत्ति के समक्ष लक्ष्मीदेवी दासीरूप थी । उनके चौसठ हजार रानियां थीं। जिस समय भरतनरेश इन्द्र के साथ अर्धासन पर बैठते थे, उस समय अन्तर को नहीं समझने वाले देव संशय में पड़ जाते थे । कौन-सा कार्य करू ।' इस प्रकार की विनति सुन मागधाधिपति के रूप में स्वीकार किया । वहाँ जगत्प्रकाशक सूर्य जैसे पूर्व में उदय होता है, वैसे ही अपने तेज से दूसरों के तेज को पराजित करने वाले तेजस्वी भरतराजा ने दिविग्जय करने लिए पूर्वदिशा से प्रस्थान प्रारम्भ किया; और वह वहाँ आ पहुँचा, जहाँ गंगा के संगम से मनोहर बना हुआ पूर्वीय समुद्रतट अपने कल्लोलरूपी करों से प्रवाह को उछालते हुए ऐसा लग रहा था मानो धन उछाल रहा हो । वहाँ मागधतीर्थ के कुमारदेव का मन में स्मरण कर चक्रवर्ती ने अर्थसिद्धि के प्रथमद्वाररून अट्ठमतप को अङ्गीकार किया । तदनन्तर रथ में बैठ कर महाभुजा वाले भरत चक्रवर्ती ने मेरु के समान विशाल समुद्र में प्रवेश किया। रथ को घुरी तक जल में खड़ा रख कर अपने दूत के समान अपने नाम से अंकित बाण को बारह योजन स्थित मागध की ओर भेजा । बाण मागध में गिरा । उसे देखते ही मागघपति देव भ्र कुटि चढ़ा कर अत्यन्त क्रोधाविष्ट हो गया। लेकिन ज्यों ही नागकुमार ने बाण पर मन्त्राक्षर के समान भरत के नामाक्षरों को देखा ; त्योंही उसका मन अत्यन्त शान्त हो गया। हो न हो, यह प्रथम चक्रवर्ती पैदा हुआ है; यो विचार कर वह मूर्तिमान विजय की तरह भरत के पास आया । वह अपने मस्तक के मणि एवं चिरकाल से उपार्जित तेज के समान बाण चक्रवर्ती के पाम वापस ले आया और कहने लगा - 'मैं आपका सेवक हू 1 पूर्वदिशा का पालक हूँ । अतः बतलाइये, मैं आपका कर महापराक्रमी भरत ने उसे जयस्तम्भ के समान से पूर्वी समुद्रतट से भरत-नरेश फिर एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी एवं एक पर्वत से दूसरे पर्वत को कम्पित करते हुए चतुरंगिणी सेना के साथ दक्षिण समुद्र पहुंचे। महाभुजबली भरत ने इस समुद्रतट पर लेना का पड़ाव डाला, तटवर्ती द्वीप में पिश्ते, काजू आदि वस्तुएं प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं। अपने गुप्त तेज से दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी भरतेश घोड़े जुते हुए एक तरंग के समान ऊँचे घोड़ों से जुते हुए रथ में बैठ कर उसी रथ को वह समुद्र में नाभि तक पानी में ले गये । फिर भरतेश ने बाण तयार करके कान तक प्रत्यंचा खींच कर धनुर्वेद के ओंकार के समान धनुष्टंकार किया । उसके बाद इन्द्र के समान बलशाली भरतेश ने सोने के कुौंडल के समान, कमलनाल के समान स्वनामांकित स्वर्णबाण धनुष पर चढ़ाया और वरदाम तीर्थ के स्वामी की ओर छोड़ा । वरदाम तीर्थ के स्वामी ने वाण को देखा और उसे ग्रहण किया । वह उसका उपाय जानने वाला था । अत: भेंट ले कर भरतेश के पास पहुंचा । भरताधिप से उसने हाथ जोड़ कर कहा कि 'आप मेरे यहां पधारे, इससे मैं कृतार्थ हुआ। आप जैसे नाथ को पा कर अब मैं सनाथ बना।' इसके बाद अपना अधीनस्थ राजा बना कर, कार्य की कदर करने वाले भरतेश्वर सैन्य से पृथ्वीतल को कंपाते हुए पश्चिमी दिशा की ओर चल पड़ । पश्चिमी समुद्रतट पर पहुंच कर भरतनरेश ने भी प्रभासतीर्थ के स्वामी की ओर विद्युद्दण्ड के समान प्रज्वलित वाण फैका । प्रभासपति ने उस वाण पर अकित वाक्य – यदि सुख से महारथ में आरूढ़ हुए। उसके बाद उछलते ५
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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