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________________ योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश जीना चाहते हो तो मेरी आज्ञा का पालन करो और मेरा दण्ड (कर) भी दो ;' अक्षर पढ़े। पढ़ते ही भरतराजा को प्रसन्न करने के लिये वह आश्चर्यकारी प्रचुर भेट के साथ उस वाण को ले कर भरतेश के समीप आया। अपने चिरकाल में उपाजित यश एवं हिम के समान उज्ज्वल मनोहर हार और मणियों में श्रेष्ठ कौस्तुभ मणि तथा अद्वितीय मणिरत्न नरशिरोमणि भरत को अर्पण किये और कौस्तुभरत्न व सुवर्ण आदि से देदीप्यमान, मूर्तिमान तेज की तरह मुकुट अर्पण कर अपनी निष्कपटभक्ति से उसने भरत को प्रसन्न किया। वहां से भरतनरेश ने उत्तरद्वार की देहली के ममान सिन्धुनदी की ओर प्रस्थान किया। वहा सिन्धुदेवी के मन्दिर के पास राजा ने सेना की छावनी डाली। सिन्धुदेवी को आह्वान करने के उद्देश्य से उन्होंने अट्ठम तप किया। सिन्धुदेवी ने अपना आसन कपायमान होने से माना कि कोई चक्रवर्ती आया है । अतः वह दिव्य भेट ले कर आई । और भरत महाराजा की पूजा की। भरतनरेश ने स्वीकार कर उसे विदा दी और तप का पारणा किया। फिर आठ दिन तक उसका विजय-महोत्सव किया। उसके बाद चक्र का अनुसरण करते हुए वे उत्तर पूर्व की ईशान विदिशा में जाते हुए भरतक्षेत्र के दो विभागों को जोड़ने वाले वैताहय पर्वत के निकट पहुंचे। वहां भरतेश ने दक्षिण-विभाग की तलहटी में सेना का पड़ाव डाला । यहा भी वैताढ्यकुमार देव को उद्देश्य करके भरत राजा ने अट्ठम तप किया । अवधिज्ञान से उस ज्ञान हुआ तो अपनी शक्ति के अनुसार भेट ले कर पहुंचा और भरत की आज्ञाधीनता स्वीकार की। उमे विदा करके राजा ने अट्ठम तप का पारण किया और उसके नाम का यथाविधि अष्टाह्निक महोत्सव किया। तत्पश्चात् कान्ति में सूर्य के समान राजा भरत तमिस्रा नाम की गुफा के पास आया और वहीं पास म ही संन्य का पड़ाव हाला । कृतमाल नाम के देव को लक्ष्य करके वहां उन्होंने अटठम तप किया । उस देव का आसन कंपित होने स वह वहां आया और राजा की अधीनता स्वीकार की। उसे भी विदा (रवाना) करक भरतेश ने अट्ठम तप का पारण किया और उसका आप्टाहिक महोत्सव किया । भरत की आज्ञा से सुषण नाम क सनापति ने चमंगन की सहायता में सिन्धृनदी को पार कर दक्षिणसिन्धु के अधिपति के निष्कुट को उसी समय जीत लिया : वनाढ्य पर्वन में वज्र-कपाट से अवरुद्ध तमिस्रा गुफा को खोलने के लिये सुपेण सेनापति को ऋषभपुत्र भरन ने आज्ञा दी। सुषेण म्वामी की आज्ञा शिरोधार्य कर तमिस्रा गुफा के निकटवर्ती प्रदेश में गया। उसके अधिष्ठायक कृतमालदेव का स्मरण करने । ने पोपधशाला में अट्ठम किया । अट्ठम तप के अन्त में स्नान कर बाह्य-आभ्यन्तर शोच से निवृत्त हो कर उमने पवित्र वस्त्र और विविध आभूपण धारण किए। उसके बाद होमकुंड के समान जलती अग्नि वाली धूपदानी में स्वार्थ-माधना को आहुनि की तरह मुष्टियों से धप डालता हुआ भण्डार के द्वार की तरह गुफा के द्वार की ओर सावधानी से गया और जल्दी मे गुफाद्वार खोलने को उद्यत हुआ । उसने कपाट युगल देखने ही नेता को नमन की तरह नमस्कार किया ; अन्यथा अन्दर प्रवेश कैसे करता ? फिर गुफा के द्वार पर आठ-आट मंगलों का आलेखन कर अठाई-महोत्सव किया । तत्पश्चात् अपने गौरव के अनुप मनापति ने सर्व-शत्रुओ के नाशक वन की तरह दंडरत्न ग्रहण किया, और वक्रग्रह के समान कुछ कदम पीछे हट कर दण्डरत्न मे दरवाजे को तीन बार प्रताड़ित किया । अत. जैमें वज्र पर्वत के पंख काट देता है, वैमे ही दण्डात्न से तड़ तह करते हुए दोनों कपाट अलग-अलग हो गये । गुफादार के खुलते ही मुपेण प्रसन्नता से उछल पड़ा। उमने भरत-सम्राट् के पास आ कर नमस्कार-पूर्वक निवेदन किया 'राजन् ! जमे अधि: तप से यति के मुक्तिद्वार खुल जाते हैं, वैसे ही आपके प्रभाव से आज गुफा का द्वार अगला
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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