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________________ योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश ने माता मरुदेवी से कहा-"दादी मां ! देखो, यह सामने देवताओं द्वारा तैयार किया हुआ प्रभु का समवसरण ! यहां पिताजी के चरण-कमलों की सेवा में उत्सव मनाने के लिये आए हुए देवों के जयजयनाद के नारे सुनाई दे रहे हैं और यह मालकोश आदि ग्रामरागों से पवित्र एवं कर्णामृत-समान भगवान् की देशना-वाणी सुनाई दे रही है । मोर, मारस, क्रौंच, हंस आदि पक्षियों की आवाज से भी अधिक मधुर स्वर वाली भगवान की वाणी, विस्मयपूर्वक एकाग्रता से कान दे कर सुनो । दादी-मां ! मेरे पिताजी की मेघ-ध्वनि के समान गम्भीर योजनगामिनी वाणी सुन कर मन बादल के समान बलवान् हो कर उसी तरफ दौड़ता है ।" मरुदेवी माता ने संसार-तारक, निर्वात दीपक के समान स्थिर, त्रिोलकीनाथ की गम्भीर वाणी हर्ष से सुनी तो उनके नेत्रपटल आनन्दाश्रुजल से धुल कर साफ हो गये। उनकी आंखों से दिखाई देने लगा। उन्होंने अतिशययुक्त तीर्थकर ऋषभदेव की ऋद्धि देखी । उसे देखने से उनका मोह समाप्त हो गया । आनन्द की स्थिरता से उनके कर्म खत्म हो गये। उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इस अवसर्पिणी-काल में मरुदेवी माता सर्वप्रथम मुक्त-सिद्ध हुई । उसके बाद देवों ने उनके पार्थिव शरीर को भी समुद्र में बहा दिया और वही निर्वाण-महोत्सव किया। दादी-मां को मोक्ष हुआ जान कर भरन राजा को हर्ष और शोक दोनों उसी तरह साथ-साथ हुए, जैसे शरत्कालीन बादलो की छाया और सूर्य का ताप दोनों हों। तदनन्तर भरतचक्रवर्ती राजचिह्नो का परित्याग कर सपरिवार पैदल चल कर समवसरण में प्रविष्ट हुए। चारों देवनिकायों से घिरे हुए प्रभु को दृष्टिरूपी चकोर से चन्द्रमा की तरह भरत राजा ने टकटकी लगा कर देखा और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया। फिर मस्तक पर अजलि करके वह इस तरह प्रभु की स्तुति करने लगा :-- "ह सम्पूर्ण जगत् के नाथ ! आपकी जय हो; सम्पूर्ण विश्व को अभयदान देने वाले ! आपकी जय हो; हे प्रथम जिनेश्वर ! आपको जय हो, है ससार के तारक ! आपकी जय हो ! इस अवमपिणीकाल के भव्यजीवरूपी कमल को प्रतिबोधित करने के लिये सूर्यसमान प्रभो! आज आपके दर्शन होने से अन्धकार का नाश हुआ है, प्रभात का उदय हुआ है । हे नाथ ! निर्मली के समान भव्यजीवो के मनरूपी जल को निर्मल करने वाली आपकी वाणी है । करुणा के क्षीरसमुद्र! आपके शासनरूपी महारथ में जो चढ़ गया, उसके लिए फिर लोकाय मोक्ष दूर नहीं रहता । देव ! अकारण जगबन्धु के साक्षात्दशन जिस भूमि पर हो जाते हैं, उस संसार को भी हम लोकाग्र मोक्ष से बढ़कर समझते हैं। स्वामिन ! आपके दर्शन से महानन्दरस में स्थिर हुई आँखों में संसार मे भी मोक्ष-सुख के आस्वादन का-सा अनुभव होता है। हे अभयदाता नाय ! रागद्वेष-कपायरूपी शत्रुओं से घिरे हुए जगत् का उद्धार आप ही से होगा। हे नाथ ! आप स्वयं तत्व को समझते हैं। आप ही मोक्षमार्ग बतलाते हैं । स्वयं विश्व का रक्षण करते हैं । इसलिये प्रभो । अब आपको छोड़ कर मै और किसकी स्तुति करू?" इस तरह भरत-चक्रवर्ती ने प्रभु की स्तुति करके दोनों कर्णपुटों को प्याला बना कर देशना के रूप में अमृतवाणी का पान किया । उस समय ऋपभसन आदि चौरासी गणधरों को भी श्रीऋपमदेव भगवान् ने दीमा दी। उसके बाद ब्राह्मी और भरत-चक्रवर्ती के पांच पुत्रों तथा सात मौ पौत्रों को भगवान ने भागवती दीक्षा दी। इस तरह उस समय प्रभु ने चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना की। भगवान् ऋपभदेव के चतुर्विध संघ में पुंडरीक आदि साधु, ब्राह्मी आदि साध्वियां श्रेयांस आदि श्रावक, और सुन्दरी आदि श्राविकाएं प्रमुख हुई। उस समय से ले कर आज तक उसी तरह यह संघ-व्यवस्था चलती रही है। तत्पश्चात् प्रभु ने भव्यजीवों को
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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