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________________ आठ कर्मों के आश्रव के कारणों पर चिन्तन आश्रवभावना है कर्मणो योग्यान् पुद्गलानावते स बन्धः' अर्थात् कषायसहित जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं। इसीलिए बन्ध और आश्रय दोनो के अन्तर की यहां विवक्षा नहीं की। फिर यह शंका उठाई जाती है कि आत्मा के साथ कम पुद्गलों का क्षीर-नीर की तरह एकमेक हो जाना बन्ध कहलाता है; तब फिर आश्रव को बन्ध क्यों नहीं कहा जाता? इसका समाधान यह है-या। तुम्हारी बात युक्तियुक्त है, तथापि आश्रव द्वारा नहीं ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गल बन्ध के अन्तर्गत कैसे हो सकते हैं ? इस कारण कर्मपुद्गलों के ग्रहण के लिए कारणरूप आप्रव को बन्ध का हेतु बताने में कोई दोष नहीं है । फिर यह सवाल उठता है कि तो फिर उपर्युक्त पांचों को आश्रवहेतु कहना चाहिए, बन्धहेतु कहना व्यर्थ है ! उत्तर मे कहते हैं ऐसी बात नही है। यहां बन्ध और आश्रव को एकरूपता की दृष्टि से कहा है, वस्तुत: यह पाठ आश्रबहेत का है; इसलिए सबको अपनी-अपनी जगह यथार्थरूप में समझ लेना। यहाँ आन्तरश्लोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते हैं--"कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने के कारण यह आश्रव कहलाता है। कर्म के ज्ञानावरणीय आदि = भेद हैं। मानावरणीय ओर बर्शनावरणीय कर्म के आश्रवहेतु ये हैं -- 'ज्ञान-दर्शनरूप गुण और इन गुणों से युक्त गुणियों के ज्ञानदर्शन प्राप्त करने में अन्तराय (विघ्न) डालना, उन्हें खत्म करना, उनकी निन्दा व आशातना करना, उनकी हत्या करना, उनके साथ डाह या ईर्ष्या करना। सातावेदनीय (पुण्य) कर्म के आश्रवस्तु ये हैं-देवपूजा, गुरु-सेवा, सुपात्रदान, दया, क्षमा, संयमासंयम, देशविरति, कर्म से मलिन न होना, बालतप आदि । असातादेवनीय (पाप) कर्म के आश्रवहेतु ये हैं - स्वयं दुःखी होना, दूमरों को दु:खी करना, शोक करना-कराना, वध, उपताप, आक्रन्दन (विलाप) एवं पश्चात्ताप करना-कराना । बशनमोहनीय कर्म के आधव के हेतु ये हैंवीतराग, श्रुतज्ञान, संघ, धर्म और सब देवों की निन्दा करना, तीव्र मिध्यात्व के परिणामवश सर्वज्ञ, सिद्ध परमात्मा एवं अर्हन्तदेव या देवों के लिए अपलाप करना, इन्हें झुठलाना, इनके अस्तित्व स इन्कार करना, धर्मात्मा पुरुपों पर दोषारोपण करना, उन्मान का उपदेश या कथन करना, अनर्थ का आग्रह रखना, असंयमी की पूजा-प्रतिष्ठा करना, पूर्वापरविचार किये बिना कार्य करना और गुरु आदि का अपमान वगैरह करना ; इत्यादि। ऐसे अकार्य करने वालों को सम्यग्दर्शन प्राप्त होना अतिकठिन होता है। कषाय के उदय से आत्मा में तीव्र परिणाम (आवेश) होना चारित्रमोहनीय कर्म के आश्रव का हेतु है। इससे जीव को चारित्ररत्न प्राप्त नहीं होता। हास्यमोहनीयनोकवाय आश्रन के हेतु.. हास्य करने ता उत्तंजन पैदा होना, कामोत्तेजक मजाक कम्ना, हंसी मजाक उडाने का स्वभाव, अधिक बोलते रहना, दीनताभरे वचन बोलना आदि । रतिनोकषाय-आश्रवहेतु · नये-नये ग्राम, देश, नगरादि देखने की उत्कण्ठा, अश्लील चित्रादि देखने का शौक, आमोद-प्रमोद का स्वभाव, खेलतमाणे देखने की आदत. दूसरे का मन ललचाना, दूसरे को आकर्षित करना आदि । अरतिनोकवाय-आंबवहेतु-दूसरे की रति (प्रेम) का भंग करना, बुरे (अकुशल) कार्यों को प्रोत्साहन देना आदि। भयनोकवाप-नामबहेतु-स्वयं भयभीत होना. दूसरों को डराना-धमकाना, आतक पैदा करना, क्रूर (निर्दय) बनना, हैरान करना, पीड़ित करना आदि । शोकनोकवाय-आपबहेतु-स्वयं शोक (चिन्ता) करना, दूसरे को शोकमग्न करना, शोक के वशीभूत (अतिचिन्तित) हो कर रोना, विलाप करना, दुःखित होना बादि । जगतात . माधव के हेतु-चतुर्विधसंघ की निन्दा करना, अवर्णवाद (अपशब्द) कहना, संघ एवं साधुनों की बदनामी करना, गाली देना सवाचार, धर्म एवं सदाचारी से जुगुप्सा, घृणा करना, दूसरों में उनके प्रति नफरत फैलाना, दूसरों की श्रद्धा डांवाडोल करना आदि। स्त्रीवेशनोकवाय-बाय के हेतु ये है-या, विषया
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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