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________________ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश सक्ति, मूर्छा, असत्यवादिता, अतिवक्रता, दम्भ (माया) करना, परदारसेवन में आसक्ति रखना आदि । पुरुषवेदनोकषाय-आधबहेत- अपनी स्त्री में ही संतोष रखना, ईर्ष्यारहित वृत्ति, कषायमन्दता, सुन्दर बाचारसेवन आदि। नपुंसकवेदनोकषाय-मानवहेतु-स्त्रीपुरुष दोनों के साथ मैथुनसेवन की लालसा, उग्र कषाय, तीव्र कामाभिलाषा, व्रताचरण में दम्भ करना, स्त्री का व्रत-भंग करना आदि । चारित्रमोहनीयकर्म के सामान्यरूप में मानवहेतु- साधुओं की निन्दा करना, धर्म का विरोधी बनना, धर्माचरण मे विघ्न डालना, मद्यमांस में रत रहना, अविरति की प्रशंसा करना, श्रावकधर्म-पालन में विघ्न डालना, अचारित्रीजनों के गुणगान करना, चारित्र में दोष बताना, कषाय, नोकषाय या अन्य आवेश की उदीरणा (उत्तेजना) पैदा करना आदि । आयुष्यकर्म के बाषव के हेतु-पंचेन्द्रिय जीवों का वध करना, बहुत ही आरम्भ करना, महापरिग्रह रखना, मांसाहार करना, उपकारी का उपकार भूल जाना, बल्कि अनुपकार करना, सदा वैरभाव रखना, रोद्रध्यान करना, मिथ्यात्वानुबन्धी कषाय, कृष्ण-नीलकापोतलश्या रखना, झूठ बोलना, परद्रव्य का अपहरण करना, बार-बार मैथुन-सेवन करना, इन्द्रियों को निरकुश रखना आदि नरकायु-भाभव के हेतु हैं ; उन्मार्ग का उपदेश देना, सन्मार्ग का लोर करना, चित्त में मूढ़ता रखना, आतध्यान करना, शल्य से युक्त रहना, माया करना, आरम्भ-परिग्रह में रत रहना, अतिचारसहित व्रत एवं शील का पालन, नील और कापोत लेश्या रखना, अप्रत्याख्यानावरणीय कषायसेवन ये तिर्यञ्चायु-आमव के हेतु हैं। अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, स्वभावाविक मृदुता (नम्रता) सरलता कापोत और तेजोलेश्या वाला, धर्मध्यान में अनुराग, प्रत्याख्यानीकषाय, मध्यमपरिणामी, सत्कार करने वाला, देव-गुरु का पूजन, आगन्तुक का मधुरवचनों से सत्कार, प्रियभाषण, सुखपूर्वक समझी जा सकने बाली लोकयात्रा में माध्यस्थ्यभाव, ये सब मनुष्यायु-आधव के हेतु हैं और देवायु-आधव के हेतु ये हैंसरागसंयम, देशसंयम, अकामनिर्जरा, कल्याणकारक मित्र से सम्पर्क रखना, धर्मश्रवण कराने का स्वभाव, योग्यपात्र को दान देना, तप:श्रद्धा, रत्नत्रय की विराधना न करना, मृत्यु के समय पद्म-पीतलेश्या के परिणाम, बालतप करना, अग्नि, जल आदि साधनों से प्राणत्याग करने की वृत्ति, अव्यक्त सामायिक करना आदि देवायुकर्म के माधव का हेतु है। नामकर्म-आषव के हेत-मनवचनकाया की वक्रता, परवंचन, माया के प्रयोग करना, मिथ्यात्व, चुगली, चंचलचित्त रखना, नकली बनावटी सोना आदि बनाना, मूठी साक्षी देना; वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श आदि के सम्बन्ध में अन्यथा (विपरीत) कथन करना, किसी के अंगोपांग काट देना, यंत्र-कर्म करना अथवा पक्षियों को पीजरे में बंद करना, झूठे नाप-तोल (गज व बांट) रखना, दूसरे की निन्दा एवं स्वप्रशंसा करना; हिंसा-असत्य-चोरी-अब्रह्मचर्य-महारम्भमहापरिग्रह-सेवन करना, कठोर असभ्यवचन बोलना, अच्छा वेष धारण करने का अभिमान करना, उटपटांग यद्वातद्वा बोलना, आक्रोश करना, सौभाग्य (सुहाग) नष्ट करना, कामण-टुमण (मारण-मोहनउच्चाटन आदि) का प्रयोग करना, दूसरे से उपद्रव कराना या स्वयं करना, कौतुक (खेलतमाशे) करनाकराना, भांड-विदूषक की-सी चेष्टा करना, किसी की फजीहत या बदनामी करना, वेश्या को आभूषण देना, दावाग्नि लगाना, देवादि के लिए गंध (पदार्थ) की चोरी करना, तीन कषाय करना, मन्दिर, उपाश्रय या उचान नष्ट करना या उजाड़ना, कोयले बनाने या बेचने का धंधा करना, ये सब अशुभनामकर्म-मानव के हेतु हैं। इन (पूर्वोक्त) से विपरीत तथा संसारभीरुता, प्रमाद त्याग करना, सदभाव में पूर्ण-अपूर्ण रहना, शमादि गुण धारण करना, धर्मात्मा पुरुषों के दर्शन से आनन्द मानना, उनका स्वागत करना इत्यादि; शुमनामकर्म-आषव के हेतु है। बरिहन्त, सिद्ध, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, गच्छ, श्रुतमान, तपस्वी बादि की भक्ति करना, मावश्यक, व्रत और शील में अप्रमाद रखना, विनय, भानाम्यास,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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