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________________ ४७० योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश अर्थ-शुभकर्म के उपार्जन के लिए वादशांगी गणिपिटकरूप अतमान के अनुकूल बचन बोलने चाहिए। इसके विपरीत अशुभकर्म के उपार्जन के लिए श्रुतज्ञानविरोधी वचन जानने चाहिए। शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाऽशुमं पुनः ॥७७॥ अर्थ- सावध-कुचेष्टाओं से सुगुप्त (बचाये हुए। शरीर से शरीरी (जीव) शुभकर्मों का संचय करता है, जबकि सतत आरम्भ में प्रवृत्त रहने वाले या प्राणियों की हिसा करने वाले शरीर से वही अशुभ कर्मों का सग्रह करता है। व्याख्या-सम्यकप से कुप्रवृत्तियों से रक्षित काया की प्रवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग आदि की स्थिति में निश्चेष्टापूर्वक काया की प्रवृत्ति करना कायायोग है । ऐमे कायायोग से जीव सातावेदनीय आदि शुभ (पुण्य) कर्मों का उपार्जन करता है ; जबकि महारम्भ या लगातार आरम्म में प्रवृत्त अथवा जीवों के घातक शरीर से जीव असातावेदनीय आदि अशुम (पाप) कर्मों का उपार्जन करता है। निष्कर्ष यह है कि मूल मे शुभाशुभ योग से शुभाशुभ कर्म उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रतिपादन करने से कार्य-कारणभाव मे विरोध नहीं आता। 'शुभयोग से शरीर शुभफल का हेतु बनता है, यह बात यहाँ प्रसंगवश कही गई है। भावना-प्रकरण में तो अशुभयोग से अशुभ फल का हेतु होते हुए भी उससे वैराग्य पैदा हो जाता है । इसलिए कार्यकारणभाव का प्रतिपादन करना चाहिए। इसको कहे बिना भी जीव अशुभहेतु का संग्रह कर बैठते हैं। कषाया विषया योगाः प्रमादाऽविरती तथा। मिथ्यात्वमातरौद्र, चेत्यशुभप्रतिहेतवः ॥७॥ अर्थ-कषाय, पांचों इन्द्रियों के विषय, अशुभयोग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और मार्त-रोदध्यान ; ये सभी अशुभकर्मबन्धन के हेतु हैं। व्याख्या-क्रोध, मान, माया, लोमरूप चार कषाय, कषायों से सम्बन्धित हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुसा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, ये मिला कर नो नोकपाय, पांचों इन्द्रियों के २३ विषयों की कामना, मन-वचन काया के व्यापाररूप तीन योग ; अज्ञान, संशय विपर्यय, राग-द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म के प्रति अनादर, योगों में दुष्प्रवृनि, इस तरह आठ प्रकार का प्रमाद, पाप का अप्रत्यास्यानरूप अविरति, मिथ्यादर्शन, आतंध्यान और रौद्रध्यान का सेवन, ये सब अशुभकर्मों के आगमन (आव) के कारण है। यहाँ प्रश्न होता है कि इन (उपर्युक्त) सबको तो बन्धन के हेतु कहे हैं। जैसे कि वाचकमुख्यश्री उमास्वाति ने कहा है - "मिध्यादर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बन्धहेतवः' अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये कर्मबन्ध के हेतु हैं ।' तब फिर आप्रव. भावना मे आश्रव के हेतु न कह कर इन बन्धहेतुओं को क्यों कहा गया ? इसके उत्तर में कहना है कि तुम्हारा प्रश्न यथार्थ है, महापुरुषों ने इन्हें आश्रवभावना में ही कहा है, बन्ध को भावना के रूप में नहीं बताया । मानवभावना ही उसे समझा जा सकता है; क्योंकि जाधव से ग्रहण किया हुआ कर्मपुद्गल आत्मा के साथ सम्बद्ध होने पर बन्ध कहलाता है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में आगे कहा है- 'सकवायत्वाज्जीव:
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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