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________________ पावभावना का स्वरूप ४६६ अब मानवभावना का स्वरूप बताते हैं मनोवाक्कायकर्माणि योगाः कर्म शुभाशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामावास्तेन कोर्तिताः ॥७४॥ अर्थ-मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति या क्रिया) योग कहलाते हैं। इन योगों के द्वारा ही जीवों में शुभाशुभ कर्म चारों ओर से खिच कर आते हैं । इसीलिए इनको (योगों को) ही 'आश्रय' कहा गया। व्याख्या-शरीरधारी आत्मा अपने समस्त आत्मप्रदेशों से मनोयोग्य शभाशुभ पूदगल मनन करने के लिए ग्रहण करता है। तथा उसमें अवलम्बन करणभाव का लेता है। इसकी अपेक्षा से आत्मा को विशेष पराक्रम करना पड़ता है, उसे मनोयोग कहते हैं। वह मन पचेन्द्रिय के होता है; तथा देहधारी आत्मा वचनयोग से पुद्गल ग्रहण कर छोड़ देता है। आत्मा उस वचनत्व से करणता प्राप्त करता है। उक्त वचनकरण के सम्बन्ध से आत्मा में बोलने की शक्ति प्राप्त होती है, उसे ही बचनयोग कहते हैं। वह द्वीन्द्रियजीव को होता है। काया का अर्थ है, आत्मा का निवासस्थान । काया के योग से ही जीव में वीर्य-परिणाम उत्पन्न होते हैं इसे ही कायायोग कहते हैं। मन, वचन और काया इन तीनों के सयोग से आत्मा में वीर्यरूप में योग वैसे ही परिणत होता है, जैसे अग्नि के संयोग से इंट आदि लाल रंग वाली बन जाती है। कहा भी है-वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति और सामर्थ्य, ये सब शब्द योग के पर्यायवाची हैं। यह योग दुर्बल या वृद्ध मनुष्य को लट्ठी के सहारे की तरह जीव का उपकारी सहायक है । मन के योग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेश में परिणमन होना मनोयोग है; भाषायोग्य पुद्गलों का वचन त्व-वक्तृत्वरूप में परिणमन होना वचनयोग है और कायायोग्य पुद्गलों का गमनादि योग्य क्रिया के हेतुरूप में परिणमन होना, कायायोग है। यह योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है। इससे सातावेदनीय और अमातावेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं। इस कारण इसे आश्रव कहा आत्मा में कर्मों का आगमन होता रहे, उसे आश्रव कहते हैं। जिससे शुभाशुभ कमों का आगमन हो, उसे योग कहा है ; क्योंकि इससे तदनुरूप कार्य होता है; इसलिए विवेक से इन्हें शुभ और अशुभकर्म के हेतु बताते हैं मैन्यादिवासितं चेत कर्म सूते शुभात्मकम् । कषाय-विषयाकान्तं वितनोत्यशुभं मनः ॥७॥ अर्थ-मंत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) लक्षण से युक्त चार मावनामों से भावित मन पुण्यरूप शुमकर्म उपाजित करता है। इससे सातावेदनीय, सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभायु, शुभनाम, और शुभगोत्र प्राप्त करता है , जबकि वही मन क्रोधादिकषाओं और इन्द्रियविषयों से आक्रान्त (अभिभूत) होने पर अशुभकर्म उपाजित करता है। इससे असातावेदनीय आदि प्राप्त करता है। शुभार्जनाय निर्मग्यं श्रुतज्ञानाधितं वचः । विपरीतं पुनर्जये अशुभार्जनहेतवे ॥७॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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