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________________ भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान और देवों द्वारा समवसरण रचना हपित हो कर चिरकाल तक माणिक्य के कंगूरे देखती रहीं। चार प्रकार के चार गवाक्षों की तरह प्रत्येक किले के चार दरवाजे सुशोभित हो रहे थे। देवों ने समवसरण की भूमि पर तीन कोस ऊंचा एक कल्पवृक्ष बनाया, जो मानो सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नों को सूचित कर रहा था। उसी वृक्ष के नीचे पूर्वदिशा में श्रेष्ठ पादपीन से युक्त रत्नजटित सिंहामन बनाया; जो स्वर्ग की-सी शोभा दे रहा था। पूर्वदिशा से प्रभु ने प्रवेश किया और 'नमो तित्थस्स' कह कर तीर्थ (सघ) को नमस्कार किया। पूर्वाचल पर अंधकार को दूर करने वाले सूर्य के समान प्रभु पूर्वदिशा में स्थापित उस सिंहासन पर विराजमान हए। उसी समय देवों ने शेप तीन दिशाओं में भगवान का प्रतिबिम्ब सिंहासन पर स्थापित किया। प्रभु के ऊपर पूर्णिमा के चद्रमंडल की शोभा का हरण करने वाले एवं तीन लोक के स्वामित्व के चिह्नरूप छत्र सुशोभित हो रहे थे । प्रभु के सन्मुख रत्नमय इन्द्रध्वज ऐसा शोभायमान हो रहा था, मानो इन्द्र एक हाथ ऊंचा किए हुए यह सूचित कर रहा हो कि भगवान् ही एकमात्र हमारे स्वामी हैं । अतीव अद्भुत प्रभाममूह मे युक्त धर्मचक्र प्रभु के आगे ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो वह केवलज्ञानियों पर प्रभु का चक्रवर्तित्व सूचित कर रहा हो। गंगानदी को श्वेत तरंगों के समान उज्ज्वल एवं मनोहर दो चामर प्रभु के मुख कमल की ओर दौड़ते हुए हस के समान प्रतीत हो रहे थे। प्रभु के शरीर के पीछे प्रकट हुए भामंडल के समक्ष मूर्यमण्डल भी जुगनू के बच्चे की तरह प्रतीत हो रहा था। आकाश में बज रही दुदुभि मेघगर्जना के समान गम्भीर थी। वह अपनी प्रतिध्वनि से दशों दिशाओं को गूजा रही थी । देवों ने उस समय चारों ओर पंखुड़ियों सहित फूनों की वर्षा की। वह ऐसी मालूम होती थी मानो शक्तिप्राप्त लोगों पर कामदेव ने अपने दूसरे अस्त्रों को छोड़ा हो। भगवान् ने तीनों लोकों का उपकार करने वाली पैतीस गुणों से युक्त वाणी से धर्मदेशना आरम्भ की। उसी समय एक दूत ने आ कर भरत राजा से निवेदन किया-'स्वामिन् ! ऋपम प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हआ है। दूसरे दूत ने आ कर सूचना दी-'आपकी आयधशाला में चरान प्रकट हआ है।' "एक ओर पिताजी को केवलज्ञान उत्पन्न हआ है, दूसरी ओर मुझे चक्ररत्न की प्रा इन दोनों में से पहले किमकी पूजा करू ? भरतनन क्षणभर इसी उधेड़बुन में पड़े रहे। दूसरे ही क्षण उन्होंने स्पष्ट चिन्तन किया कि कहाँ विश्व के जीवों को अभयदान देने वाले पिताजी और कहाँ जीवों का संहार करने वाला यह चक्र ! यों निश्चय कर उन्होंने अपने परिवार को प्रभु की पूजा के लिए चलने की आज्ञा दे दी। पुत्र पर आने वाले परिपहों के समाचार सुन-सुन कर निरन्तर दु.खात्रु बहाने के कारण नेत्ररोगी बनी हुई मातामही मरुदेवी के पास आ कर भरत ने नमन किया और प्रार्थना की- "दादी-मां ! आप मुझे सदा उपालंभ दिया करती थी कि मेरा सुकुमार पुत्र चौमासे में पद्मवन की तरह जल का उपद्रव सहन करता है और शर्दी में वन में हिमपात होने से मालती के स्तम्भ की तरह परिक्लेश-अवस्था का सदा अनुभव करता है और गर्मी में सूर्य की अतिभयंकर उष्ण किरणों से हाथी के समान अधिक संताप अनुभव करता है । इस तरह मेरा वनवासी पुत्र सभी ऋतुओं में सदैव अकेला, आश्रवरहित, तुच्छ जन की तरह कष्ट उठा रहा है । अतः आज तीन लोक के स्वामित्व को प्राप्त हुए अपने पुत्र की समृद्धि देखना हो तो चलो।" यों कह कर साझात् लक्ष्मी के समान परमप्रसन्न मातामही को हाथी पर बिठा कर सोने, हीरे एवं माणिक्य के आभूषणों से विभूषित होकर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना के साथ भरत ने समवसरण की ओर प्रस्थान किया । संन्य के साथ जाते हुए भरत राजा ने दूर से ही सामने आभूषणों को एकत्रित किये हुए जंगम तोरण के समान एक रत्नध्वज देखा । देखते ही भरत
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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