SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नरकगति और तियंचगति के दुःख जाता है, जलप्रवाह से भीगना पड़ता है, दावाग्नि से जलना पड़ता है, नमक, बार, मूत्रादि क्षार जल वगैरह से व्यथित होना, उबलते पानी में नष्ट होना, कुम्हार आदि के अवि में पकना, घड़े, इंट आदि के रूप में पकना, कीचड़ बनना एवं मिट्टी की कुडी के रूप में सोना आदि गलाते समय बाग में तपना पड़ता है नथा कठोर पत्थर की चोट सहनी पड़ती है, नदी की तेज धार से कट जाना एवं पर्वतों के रूप में टुट कर गिरना पड़ता है । अप्कायत्व प्राप्त करके सूरज की गर्म किरणों में तपना, हिम बन कर जम जाना, धूल मे सूखना, खार, खट्टे आदि विविध जलजाति के परस्पर इकट्ठे होने पर, बर्तन में उबालने पर या प्यासे जीवों द्वारा जल पी जाने पर अपकायिक जीवो को मृत्यु का सामना करना पड़ता है । अग्निकायिक जावों का जल आदि से घात होता है; घन आदि से चोट खाना, इंधन आदि से जलना इत्यादि रूप में अग्निकाय को वेदना सहनी पड़ती है। वायुकायिक जीवों का हनन पंखे आदि से होता है, शीत, उष्ण आदि द्रव्यों के संयोग में उनकी क्षण-क्षण में मृत्यु होती है, पूर्व आदि विभिन्न दिशाओं की सभी हवाएं इकट्ठी होने से वायुकायिक जीवों की विराधना होती है। मुंह, नाक आदि की हवा से भी विराधना होतो है, सर्प आदि द्वारा वायु का पान किया जाता है । कन्द, मूल, फल फूल, त्वचा, गुल्म, गुच्छा, नीलण-फूलण आदि दस प्रकार के वनम्पतिरूप एकेन्द्रिय जीवों का विनाश छेदन, भेदन अग्नि में पचन-पाचन, परस्पर घर्षण, आदि से होता है । इसी प्रकार सूखाने, पीलने घिसने, कूटने, पीटने, क्षार आदि डालने, भड़जे आदि से भूजने, उबलने हुए तेल, पानी आदि में तलने, दावानल से जल कर राख बनने, नदी की तेज धारा से जड़ से उखड़ जाने, आंधी आदि से टूट पड़ने, खाने वाले के आहाररूप बनने इत्यादि रूप में भी वनस्पतिकायिक जीवों का घात होता है। सभी प्रकार की वनस्पति सभी जीवों का भोजनरूप बनती है। इसे सब प्रकार के शस्त्रों द्वारा लगातार क्लेश होता रहता है। द्वीन्द्रियरूप जीवों में सर्दी, गर्मी, वर्षा, अग्नि आदि का क्लेश सहना पड़ता है, कंचा परों से दब जाता है, मुर्गे आदि भी खा जाते है, पोरे पानी के साथ निगले जाते है, शंख आदि मारे जाते हैं, जौंक निचोड़ी जाती है, पेट में पड़े हुए कचए आदि को औषध से गिरा कर मारा जाता है। श्रीन्द्रिय जीव जू, खटमल, पिस्सू आदि को मसल दिया जाता है, कई शरीर से दब जाते हैं, चींटी पर से दब जाती है या झाडू आदि से सफाई करते समय मर जाती है, कीचड़ में फंस जाती है । धूप या गर्म पानी में जलना पड़ता है। कुंथुना आदि बारीक जीव आसन आदि से दब कर मर जाते हैं. इस प्रकार की अनेक वेदनाए और मृत्यु के दुःख भोगने पड़ते है । चतरिन्द्रिय जीव मक्खी, मच्छर आदि का अनेक कारणो से नष्ट हो जाता है। मधुमक्खी, भौर आदि का शहद ग्रहण करने वाले लोग ढेला आदि फैक कर विराधना करते हैं। पंखे आदि से डांस, मच्छर वगैरह का ताड़न होता है। मक्खी, मकोड़ों आदि को छिपकली या गोह आदि खा जाते हैं। पचेन्द्रिय ग्लचर जीव प्राय: एक दूसरे को निगल जाते है । मत्स्यगलागल न्याय प्रसिद्ध है । समुद्र में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। जल में मछुए जाल डाल कर पकड़ लेते हैं, बगुले खा जाते हैं, कई चमड़ी उधेड़ कर उसके मांस को पका कर खा जाते हैं, कई चर्बी के लिए प्राणी को मार कर उसकी चर्बी निकाल लेते हैं ; स्थलचर में उत्पन्न होने वाले निर्बल हिरन आदि को बलवान मांसलोलुप सिंह, चीता, भेड़िया आदि खा जाते हैं ; शिकारी, बहेलिए, शिकार के शौकीन या मांसलोलुप या क्रीडारसिक लोग कई जीवों की हिंसा करते हैं । बेचारे स्थलघर पशुओं को भूब, प्यास, ठंड, गर्मी, अतिभारवहन,मार सहना, चाबुक, अंकुश आदि की फटकार सहना ये और इस प्रकार की वेदनाएं सहनी पड़ती हैं । माकाश में उड़ने वाले पक्षी तोता, कबूनर, चील, चिड़िया, तीतर आदि को बाज, गिद्ध, बिल्ली बादि मांसभक्षी प्राणी वा जाते हैं। मांसलोलुप कसाई, शिकारी आदि विविध उपायों से अनेक प्रकार की यातनाएं देकर उन्हें
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy