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________________ ४६२ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश अस्तित्व ही नहीं रहता । अगर इन्हें कर्मसापेक्ष मानें तो ईश्वर की अस्वतंत्रता तथा निष्फलता सिद्ध होती है। इसलिए स्वर्गनरकादिगमन मे प्रेरक कर्म ही है, इसके लिए ईश्वर को बीच में डालने की क्या आवश्यकता है? जैसा कि वीतरागस्तोत्र में हमने कहा है-कर्मफल भुगतवाने की अपेक्षा से यदि ईश्वर को माना जाय तो वह हमारे समान स्वतंत्र सिद्ध नहीं होगा और कर्म के कारण से ही जगत की विचित्रता माने तो फिर निष्क्रिय (नपुंसक) ईश्वर को बीच में रखने से क्या प्रयोजन ? इस सम्बन्ध में यहां कुछ बान्तरपलोकों का भावार्थ प्रस्तुत करते है: नरकगति के दुःख-कर्मों के कारण पीड़ित संसार नरक, तियंच, मनुष्य और देवरूप चार गतिरूप है। इनमें से जिसमें सबसे अधिक दुख होते है, उसे नरकगति कहते है। नरक सात हैं । पहले के तीन नरकों मे उष्णवेदना होती है। चोये नरक में शीतोष्ण वेदना, और शेष तीन नरकों में शीतवेदना होतो है। इस प्रकार नरकजीवों को क्षत्र के अनुसार वेदना (दुःख) होती है। जहाँ उष्ण और शीत वेदना होती है, उन नरकों में यदि लोहे का पवंत टूट कर पड़े तो नीचे धरती तक पहुंचने से पहले ही वह पिघल जाता है, अथवा जम जाता है या बिखर जाता है। नरक के जीव परसार पिछले वैरभाव को कुरेद-कुरेद कर एक दूसरे को दुःखी करते रहते है, अथवा परमाधामिक देवों द्वारा उन्हें दु.ख मिलता है । नारकजीव तीनों प्रकार के दुःखों को बारबार भोगता हुआ नारकीय पृथ्वी पर निवास करता है। नारकजीव कुम्भीपाक में उत्पन्न होता है, फिर परमाधार्मिक असुर छोटे-से सुराख के समान द्वार में से लोहे की सलाई की तरह जबर्दस्ती खीच कर उसे बाहर निकालते हैं। जैसे घोबी शिला पर कपड़े को पछाड़ता है, वैसे ही परमाधामिक नारकीयजीवों के हाथपर आदि पकड़ कर वजयुक्त कांटों वाली पर उसे पछाड़ते हैं। जैसे करीत से लकड़ी चीगे जाती है, वैसे ही नारकों को असुर भयंकर करीत से चीरते हैं । जैसे कोल्हू में तिल पेरे जाते हैं, वस ही नारकों को कोल्हू में पेरा जाता है। जब वह प्यास से पीड़ित होता है तो बेचारे को गर्मागर्म खोलते हुए शीशे या तांबे के रस वाली वैतरणी नदी में बहाते हैं । जब धूप से नारक छाया में जाना चाहता है तो उमे असिवन की छाया में पहुंचाया जाता है ; जिससे उसकी छाया में खड़े रहने पर उस पर तलवार की धार के ममान पत्तं गिरते है, जिनसे तिस के समान उसके शरीर के सैकड़ों टुकड़े हो जाते है। पूर्वजन्म मे परस्त्री के साथ की हुई रमणक्रीड़ा याद दिला कर असुर उसे वज्र के समान तीखे काटो वाले गाल्मलिवृक्ष की डाली के साथ तथा तपाई हुई लोहे की पुतली के साथ बालिंगन कराते है । पूर्वजन्म में खाये हुए मास की बात याद दिला कर उसके ही अंगों से मांस काट-काट कर उसे खिलाते हैं, तथा मदिरापान का स्मरण करा कर गर्मागर्म शीशे का रस पिलाते हैं । आग पर सेकना, डंडं की तरह उछालना, तेज शूली से बींधना, कुम्भीपाक में पकाना, उबलते हुए तेल मे तलना, गर्म रेत पर चने के समान भुनना, इत्यादि हजारों किस्म की यातनाएं पापात्मा नारकीय जीव परवश हो कर नरक में सतत विलाप करते हुए सहते हैं। रो-रो कर दुःख भोगते हैं। बगुले, कंक आदि क्रूर हिंसक पक्षी चोंचों से उनके शरीर को छिन्नभिन्न कर देते हैं । लख आदि इन्द्रियां खींच कर निकाल लेते हैं। शरीर से पृथक् हुए उनके अवयत्र पुनः जुड़ जाते हैं । इम प्रकार नारकीय जीव महादुःख से पीड़ित और सुख के लेशमात्र अनुभव से वंचित हो कर लगातार तैतीस सागरोपम लम्बे समय तक नरक में रहता है। तिर्यगति के एक-तियंचगति मिलने पर कितने ही जीव एकेन्द्रिय में पृथ्वीकाय का रूप प्राप्त करते हैं, जिसमें हल आदि शस्त्र से उसे खोदा जाता है हाथी-घोड़े आदि के पैरों द्वारा उसे कुचला
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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