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________________ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश पकड़ते हैं और मार डालते हैं । बेचारे तिर्यचों को पानी, आग, शस्त्र आदि का भय तो हमेशा बना रहता है। कई बार बंधे हुए व पराधीन होने से विवश हो कर मर जाते हैं। उनके अपने-अपने कर्मबन्धनों के कारण होने वाले कितने दुःखों का वर्णन करें ? मनुष्य गति के दुःख - मनुष्यजीवन में अनार्यदेश में जन्म ले कर मनुष्य इतने पापकर्म करता है, जिनका कथन भी अशक्य है। आयंदेश में जन्म ले कर भी बहुत-से चांडाल म्लेच्छ मंगी, कसाई, वेश्या आदि बन कर अनेक पापों का उपार्जन करते हैं और दुःखानुभव करते हैं । आर्यवंश में जन्म लेने वाले भी अनार्यों की-सी चेष्टा करके दुःख, दारिद्य और दौर्भाग्य की ज्वाला में जल कर दुःख भोगते हैं । दूसरों के पास अधिक सम्पत्ति और अपने पास कम सम्पत्ति देख-देख कर या दूसरों की गुलामी, नौकरी आदि करके मन में कढता हआ आदमी दःखी हो कर जीता है। रोग, बुढ़ापा, मृत्य, प्रियजनवियोग, आदि दुःखों से घिरा रह कर अथवा नीचकर्म करने से बदनाम हो कर मनुष्य दयनीय और दःखी हा में जीता है । बुढ़ापा, रोग मृत्यु या गुलामी में उतना दुःख नहीं है, जितना नरकवास या गर्भवास में है। योनियंत्र में से जब जीव बाहर निकलता है, उस समय जो दुःखानुभव होता है, वह वस्तुत: गर्भवास के दुःख से भी अनन्तगुना ज्यादा होता है। बचपन में मनुष्य मल-मूत्र में लिपटा रहता है, उसो में खेलता रहता है, जवानी में मैथुनचेष्टा करता है और बुढ़ापे में श्वासरोग, दम, खांसी आदि रोगों से प्रस्त रहता है-इसे शर्म नहीं आती ; जब कि पुरुष बाल्यकाल में विष्ठा खाने वाले सूमर-सा, जवानी में मदन के गधे-सा और बुढ़ापे में बूढ़े बल-सा बन कर पुरुष नहीं रहता । मनुष्य बचपन में माता का, यौवन में युवती का और बुढ़ापे में पुत्रादि का मुख देखता है, मगर अन्तर्मुख-आत्मसम्मुख नहीं देखता । धन की आशा में व्याकुल मनुष्य खेती, नौकरी, व्यापार, पशुपालन आदि कार्यों में रचा-पचा रह कर अपने जीवन को व्यर्थ खो देता है। कभी चोरी करता है, कभी जुबा खेलता है, किसी समय नीच के साथ दुष्टता करता है। इस प्रकार मनुष्य बार-बार संसार में परिभ्रमण के कारणों को अपनाता है। मोहान्ध मनुष्य सुखी हालत में कामभोगों में और दुःखी हालत में दैन्य और रुदन करने में ही अपना जीवन समाप्त कर देता है परन्तु उसे धर्मकार्य नहीं सूझता । मतलब यह है कि अनन्त कर्मसमूह को क्षय करने में समर्थ आत्मा मनुष्यत्व प्राप्त करके भी पापकर्म करके पापी बनता है । ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपी रत्नत्रय का आधारभूत मानवशरीर प्राप्त करके सोने के बर्तन में शराब भरने की तरह इसे पापकर्म से परिपूर्ण करता है। संसार-समुद्र में स्थित जीव को किसी तरह बड़ी मुश्किल से मणिकांचनसंयोग की तरह चिन्तामणि रत्न से भी बढ़ कर बहुमूल्य मानवजीवन मिला है, लेकिन वह कोमा उड़ाने के लिए रत्न को फैकने के समान अपने कीमती जीवन को खो देता है। स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का असाधारण कारणस्प यह मनुष्यत्व प्राप्त होने पर भी मनुष्य नरक-प्राप्ति के उपायभूत कार्यों को करने में जुटा रहता है। अनुत्तरविमानवासी देवता भी जिस मनुष्यगति को पाने के लिए प्रयत्नपूर्वक लालायित रहते हैं, उस मानवजीवन को पा कर भी पापी मनुष्य उसका पाप में उपयोग करता है। नरक के दुःख तो परोक्ष है, परन्तु नरजन्म के दुःख तो प्रत्यक्ष हैं ; उनका विस्तृत वर्णन कहाँ तक करें ! देवगति के दुख-शोक, क्रोध, विषाद, ईया, दैन्य बादि के वशीभूत बुद्धिशाली देवों में भी दुःख का साम्राज्य चल रहा है। दूसरे की महान समृद्धि देख कर अपने द्वारा पूर्वजन्म में उपाजित अल्प सुकृत को जान कर देव चिरकाल तक उसके लिए शोक करता है। दूसरा बलवान देव उसके पीछे पड़ा हो और वह प्रतीकार करने में असमर्थ हो गया हो, तब तीक्ष्ण क्रोध-शल्य के अधीन हो कर निरन्तर मन
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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